Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
परमाणु की एक प्रदेश से दूसरे प्राकाश प्रदेश तक होने बाली मन्दगति अनुसार सबसे छोटे कालांश होरहे समय को नाप लिया जाता है, जगत् का कोई भी पूरा कार्य एक समय से कमती काल में नहीं होसकता है । यह व्यवहार काल परस्पर की अपेक्षा से होरहे प्रभेदों को धार रहा है यानी भविष्यकाल कुछ देर पीछे वर्तमान होजाता है, बर्तमान काल थोड़ी देर पश्चात् भूत होजाता है, भूतकाल चिरभूत होजाता है, तथा भूत को पूर्व-वर्ती मान कर काल में वर्तमानपन का व्यपदेश है, और वर्तमान को वीच में डाल कर आगे पीछे के कालों को भूत, भविष्य-पन का व्यवहार कर दिया जाता है, तिस कारण परस्परापेक्ष होने से उस काल से भूत, वर्तमान प्रादि भेदों करके विविधपन की सिद्धि होजाती है- लौकिक व्यवहारों के अनुसार काल में किसी न किसी अपेक्षा से होरही भूत, वर्तमान भविष्यपन की व्यवस्था अबिरुद्ध है, कोई भी वानी, प्रतिवादी इसका विरोधी नहीं है जो भी कोई पण्डित “वर्तमानाभाव-पतितः पतित-पतितव्य-कालोपपत्तेः ॥३७॥" तयोरप्यभावो वर्तमानाभावेतदपेक्षत्वात् ।। ३८ ॥" नातीतानागतयोरितरेतरापेक्षासिद्धिः ॥ ३६॥" गौतम न्यायसूत्र में यों वर्तमान काल का खण्डन मण्डन करते हैं, उन सब को व्यवहार के अनुरोध से तीनों काल मानने पड़ते हैं।
यथा प्रतितरु प्राप्तप्राप्नुवत्लाप्स्यदुच्यते । तरुपक्तिं क्रमादश्वप्रभृत्यनुसरन् मतं ॥५०॥ तथावस्थितकालाणूनां जीवाद्यनुसंगमात् ।
भूतं स्वाद्वर्तमानं च भविष्यच्चाप्यपेक्षया ॥५१॥ काल के त्रित्व को प्राचार्य दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करते हैं, कि बाग में गमन कर रहे घोड़ा, देवदत्त, आदि द्रव्य जिस प्रकार वृक्षों की पंक्ति का क्रम से अनुसरण कर रहे सन्ते एक एक वृक्ष के प्रति प्राप्त होचुके, प्राप्त होरहे, प्राप्त होवेंगे, यों कहे जा रहे माने गये हैं, तिस प्रकार जहां तहां अवस्थित होरहे कालाणुओं का अनुगमन करने से जीव आदि द्रव्य भी अपेक्षा करके भूत और वर्तमान तथा भविष्य कह दिये जाते हैं।
भूतादिव्यवहारोतः काले स्यादुपचारतः।
परमार्थात्मनि मुख्यस्तु स स्यात् सांव्यवहारिके ॥५२॥ इस कारण यानी क्रियावान् द्रव्यों की अपेक्षा होने से अथवा व्यवहार काल के द्वारा किया गया होने से परमार्थ स्वरूप मुख्य काल में भूत प्रादि का व्यवहार तो उपचार से ही कहा गया माना जाता है। अर्थात्-निकट-वर्ती विवक्षित द्रव्य की वर्तना का अनुभव कर चुकी कालाणु भूत कही जाती है, और उस द्रव्य को वर्ता रही कालाणु वर्तमान मानी जाती है, तथा भविष्य में उस द्रव्य की वर्तना का सम्बन्ध करने वाली कालाणु भी भविष्य कह दी जाती है। हां समीचीन व्यवहार काल में तो वह भूत, वर्तमान, आदि का व्यपदेश मुख्य ही होगा जैसे “यष्टिः पुरुषः,, यहाँ लकड़ी में छडीपन का व्यवहार मुख्य है, और पुरुष में लकड़ीपनका व्यवहार लाक्षणिक होरहा गौण है, उसी प्रकार काल परमाणु में भूत प्रादि व्यवहार गौण है, हाँ व्यवहारकाल में भूत, वर्तमान, भविष्यपन मुख्य हैं।