Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
२८
श्लोक - वार्तिक
निष्पन्न होजायंगे, साधारण कारणों की आवश्यकता नहीं है । ( हेतु ) इत्यादिक अनुमानों करके धर्म श्रादि वाध डाले जाते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं, कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वह अनुपलब्धि हेतु अपने साध्य का प्रयोजक नहीं है। अनुकूल तर्क नहीं होने से । अपने नियत गढ़ लिये गये नास्तित्व साध्य को नहीं साध पाता है । तथा दूसरे जीवोंके चित्त की वृत्तियां, कृपरणों के धन, गुप्त रोग, आदि करके व्यभिचार होजायगा कुटिल मायाचारियोंकी चित्त वृत्तिका बड़े बड़े बुद्धिमानों को पता नहीं चल पाता है कृपण के धन का परिज्ञान दूसरे पुरुषों को नहीं होता है । कई भिखारियों के पास हजारों रुपये पाये गये सुने जाते हैं | अपने अपने छोटे छोटे रोग और दूसरों के गुप्त रोग नहीं दिखते हैं, फिर भी इस अनुपलब्धि से उनका प्रभाव नहीं मान लिया जाता है ।
हाँ देखने योग्य होरहे पदार्थों की अनुपलब्धि से उनका प्रभाव साधा जा सकता है, किन्तु वह दृश्य की अनुपलब्धि तो फिर यहां प्रसिद्ध ही है । क्योंकि अस्मदादि जीवों करके धर्म प्रादिकों की प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वथा उपलब्धि नहीं हो सकती है । अतः देखने योग्य नहीं होने से दृश्यानुपलब्धि हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । तथा यह अनुपलब्धि हेतु वाधितहेत्वाभास भी है क्योंकि प्रमाण भूत श्रागम से प्रवाधित होरहे धर्म आदि पक्षों के कथन हो चुकने के अनन्तर प्रयुक्त किया गया है "कालात्ययापदिष्टः कालातीतः " इस प्रकार वाधा रहित होरहीं प्रतीतियों के विषय- भूत अर्थों के प्रकाशने वाले सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज और श्री समन्तभद्र, श्री अकलंक देव, आदिक आचार्य तो हित हित को विचारने वाले प्र ेक्षावान् पुरुषों के स्तवन करने योग्य हैं । इस कारण ग्रन्थकार भक्ति वश होकर उन प्राचार्यों की स्तुति करते हैं । प्रतीन्द्रिय अनेक सूक्ष्म पदार्थों की निर्वाध प्रतिपत्ति कराने वाले ठोस प्राचार्यों के ऊपर कृतज्ञ विद्वानों की श्रद्धा होजाना और उन की स्तुति करना स्वाभाविक ही है।
निरस्तनिःशेषविप नसाधनेर जीवभावा निखिलाः प्रसाधिताः । प्रपंचतो यैरिह नीतिशालिभिर्जयंति ते विश्वविपश्चितां मताः । ५६ ।
सम्पूर्ण विपक्ष यानी वाधकों का निराकरण कर चुके समीचीन साधनों करके जिन नीतिन्याय - शाली सूत्रकार आदि महाराजों ने विस्तार के साथ सम्पूर्ण प्रजोवपदार्थों को यहाँ वाईसमें सूत्र तक पांचवे अध्याय में भले प्रकार सिद्ध करा दिया है, जगत् के सम्पूर्ण विद्वानों के यहां मान्य होरहे वे श्राचार्य महाराज जयवन्ते होरहे हैं । अर्थात् - धन्य हैं वे प्राचार्य महाराज जिन्होंने न्याय पूर्वक समीचीन युक्तियों करके धर्म प्रादि अजीव पदार्थों की प्रमारणों से सिद्धि करा दी है, ऐसे तत्वज्ञान के बोधक विद्वानों को सभी शिरसा मान्य करते हैं, वे महामनाः सद् गुरु इस सर्वदा सर्वहितकारिणी क्रिया करके जयवन्ते होरहे हैं ।
इति पंचमस्याध्यायस्य प्रथममाह्निकम् ।
इस प्रकार पांचवें अध्याय का श्री विद्यानन्द स्वामी कृत पहिला प्रकरण-समूह-स्वरूप पहला न्हिक यहांतक समाप्त हुआ ।
इसके आगे अन्य प्रकारों का पारम्य किया जाना ।