Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
दोनों का अनुभूतपना स्वीकार नहीं किया है, उष्णजल में घुसे हृये तेजो द्रव्य के भास्वर रूप का भले ही प्रत्यक्ष नहीं होय किन्तु प्रविष्ट होरहे माने गये उस श्रग्नि द्रव्य के उष्ण स्पर्श का प्रत्यक्ष हो रहा है, हां तेजोद्रव्य माने गये सुवर्ण में उष्ण स्पर्श के प्रनुभूत होने पर भी भास्वर रूप अनुभूत नहीं होरहा है। अब उस बात उत्तर दो कि ग्रांखों की दूरवर्ती पदार्थ तक पहुँच रहीं मध्यवर्ती स किरणों के भास्वर रूप और उष्ण स्पर्श का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता है ? ।
इस पर वैशेषिक यह अनुमान कह कर समाधान करते हैं कि चक्षु की किरणों में रूप, रस साश, अवश्य हैं भले ही वे अनुभूत होंय, कारण कि वे चक्षुकी किरणें तेजोद्रव्यकी बन :ई हैं। इस पर हम जैनों का कहना है कि जैसे जल में गन्ध को साधने पर या तेजो द्रव्य में गन्ध और रस गुरण के साधने पर अथवा वायु में रस, गन्ध, रूपों से सहितपना साध्य करने पर प्रयुक्त किये गये स्पर्शवत्व हेतु को प्रापने वाधित कह दिया है और प्रत्यक्ष या आगम से विरोध दिखलाने का दुस्साहस किया है इसी प्रकार मनुष्य प्रादि के चक्षु की किरणों में ग्रनुभूत रूप स्पर्शो के साधने पर कहा गया तुम्हारा तंजसत्व हेतु भी वाधित क्यों नहीं होजावे ? प्रथम तो मनुष्य कबूतर, चिड़िया आदि की गांवों में किरणें ही नहीं दीखती हैं यदि बिल्ली, व्याघ्र, कुत्ता, बैल आदि की प्रांखों में किर भी मान ल जांय तो उनका चन्द्रमा, ताराम्रों तक पहुँचना या वीसों कोस तक के पर्वतों तक पहुँचना तो प्रत्यक्षवाधित है ही और उन मध्यदेश में से होकर जारहीं मानी गयीं किरणों में उष्णाश या रूप का स्वीकार करना तो प्रत्यक्ष प्रमाण से नितान्त वाधित है ।
जिनागम में "मूलुहपहा अग्गी प्रादावो होदि उण्हसहियपहा । आाइच्चे तेरिच्छे उन्हूण पहा हु उज्जो ||३३|| (गोम्टसार कर्मकाण्ड ), मूल में उष्ण होरहे और उष्णप्रभा वाले पदार्थ को अग्निद्रव्य कहा है, सुवर्ण कथमपि श्रग्नि द्रव्य नहीं है तथैव प्रांखें या उनकी किरणें भी तेजोद्रव्य से निर्मित नहीं हैं, ऐसी दशा में चक्षुकी किरणों में उष्णस्पर्श या भास्वररूप स्वीकार करना वाधित पड़ जाता है. यदि अपने तैजसत्व हेतुको प्रवाधित कहते हो तो हमारे स्पर्शवत्व हेतुको भी प्रवाधित कहना पड़ेगा । न्याय मार्ग समान होना चाहिये ||
तत्रागमेन विरोधाभावात्तद्भावप्रतिपादनान्न दोष इति चेत्, तत एवान्यत्र दोषां माभूत । स्याद्वादागमस्य प्रमाणत्वमसिद्धमिति चेन्न, तस्यैव प्रामाण्यसाधनात् । यौगागमस्यैव सर्वत्र दृष्टेष्टविरुद्धत्वेन प्रामाण्यानुपपत्तेः ।
यदि वैशेषिक यों कहैं कि चक्षुः की किरणों में अनुभूत रूप या स्पर्श के मानने पर स्थूल प्रत्यक्ष से भले ही विरोध प्रावे किन्तु श्रागम प्रमाण से कोई विरोध नहीं आता है, अतः हमने नयन किरणों में रूप या स्पर्श के सद्भाव को अनुमान द्वारा कह कर भी समझा दिया है कोई दोष नहीं आता है प्रथवा उन जल प्रादिमें प्रागम से विरोध नहीं प्रानेके कारण उन गन्ध प्रादिका प्रभाव होरहा समझा दिया है । यों कहने पर तो हमजैन सिद्धान्तीभी आपको प्रतिपत्ति कराते हैं कि तिस ही कारणसे यानी श्रागमविरोध होने से अन्य स्थल पर भी कोई वाधा भागासिद्ध, व्यभिचार ये दोष नहीं प्राप्त होश्रो अर्थात् - जल प्रादि में गन्ध आदि को साध्य करने पर भी किसी समीवीन आगम से विरोध नहीं माता है, अतः हमने पृथिवी, जल, तेज, वायु, चारों में रूप, रस गन्ध, स्पर्श, गुणों का सद्भाव साध दिया है ।