Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक - वार्तिक
बराबर हो रहे काल द्रव्य में लागू नहीं है, कारण कि जो मुख्य रूप से काल नामक द्रव्य हैं, वे श्रुत ज्ञान में पांच अस्तिकायों से न्यारे प्रकाशित किये गये हैं, काल द्रव्य में प्रदेशों का संचय कथमपि नहीं है ।
व्यवहारात्मकः कालः परिणामादिलक्षणः । द्रव्यवर्तनया लब्धकालाख्यस्तु ततोऽपरः ॥४७॥
मुख्य काल और अन्य पांचों द्रव्यों में पाये जा रहे अनेक परिणाम जिसके ज्ञापक चिन्ह हैं वह व्यवहार-आत्मक काल है । तथा जीव पुद्गलों में पायी जा रही परिस्पन्दग्रात्मक क्रिया भी जिसका ज्ञापक लक्षण है वह व्यवहार काल है एवं जाव पुद्गलोंके विवर्तों में पाये जा रहे कालिक परत्व अपरत्व भी जैसे व्यवहारके ज्ञप्तिकारक लिंग हैं। अर्थात् धर्म अधर्म, श्राकाश काल इन द्रव्यों का अनादि अनन्त अवस्थान का कोई छोटा या बड़ा नहीं है अतः इनमें कालिक परत्व, अपरत्व नहीं माना जा सकता है, हां धर्म श्रादिकों के पर द्रव्य को निमित्त मानकर हुये कतिपय स्वभावों में परत्व अपरत्व माना जा सकता है जैसे कि श्री ऋषभदेव भगवान् की मोक्ष के प्रति गतिहेतुत्वगुण के स्वभाव की अपेक्षा भगवान् श्री महावीर स्वामी का मोक्षगमनहेतुत्व नामक धर्म द्रव्य का स्वभाव अपर है एक वर्ष पूर्व नित्य निगोद से निकलने वाले व्यवहार राशि के जीव की मन्द कषाय परिणति के सम्पादक कालागु के तत्कालीन उपजे स्वभाव की अपेक्षा सौ वर्ष पहिले नित्य निगोद से निकालने वाली किसी जीव की परिणति का सम्पादक हुआ सौ वर्ष पहिला कालागु का स्वभाव पर है ।
भगवान् शान्तिनाथ को सिद्धक्षेत्र में अवगाह देने वाले श्राकाश के अवगाहकत्व स्वभाव की अपेक्षा श्री नेमिनाथ को सिद्धक्षेत्र में अवस्थान देने वाला आकाश के अवगाहगुरण का स्वभाव अपर ( पुराना ) था शुद्ध द्रव्यों में भी भिन्न भिन्न समयों में होने वाली अनेक द्रव्यों की परिणतियो के सम्पादक प्रनन्तानन्त उत्पाद विनाश-शाली स्वभाव माने जाते हैं उस द्रव्य के प्रात्मभूत हो रहे विशेष स्वभाव को माने विना उस द्रव्यके द्वारा किसी भी विशेष कार्यका सम्पादन नहीं हो सकता है | दर्पण में हजारों लाखों पदार्थों का प्रतिविम्ब पड़ता है इसका रहस्य भी यह है कि पुद्गल - निर्मित दर्पण नामक अशुद्ध द्रव्य के स्वच्छत्व या प्रतिविम्बकत्व नामक पर्यायशक्तिस्वरूप गुरण के अनेक उत्पाद विनाशशाली स्वभाव हैं जो कि प्रतिविम्व्य पदार्थों के योग, वियोग अनुसार उपजते विनशते रहते हैं। एक युवा मनुष्य अपने मुख करके पान, इलायची, सुपारी, रबड़ी, कड़ी रोटी, नरमपूरी, हलुप्रा भुजेचना, दूध, मलाई, रसगुल्ला, इमर्ती, पेड़ा, सकलपारे, चिरबा, ककड़ी, भुरभुरो गजक, आदि को खाता है। यहां प्रत्येक के खाने में मुख की क्रिया श्रौर जबड़ों का प्रयत्न म्यारा न्यारा है जिस प्रयत्न से हलुआ खाया जाता है उस प्रयत्न से चने नहीं चबे जा सकते हैं तथा जो देवदत्त वीस सेर वजन ले जाता है वह एक सेर बोझ को भी ढो लेता है किन्तु वीस सेर, पन्द्रह सेर, दस सेर, पांच सेर, बोझा ढोने के प्रयत्न न्यारे न्यारे हैं, पांच सेर को ढोनेके लिये किये गये पुरुषार्थ करके वीस सेर बोझा नहीं लादा जा सकता है यहाँ तक कि सूक्ष्म दृष्टि से विचारने पर सेर, छंटाक, तोला, माशा, रत्ती, चावल, पोस्त, गलाग्र तक के ढोने में न्यास न्यारा पुरुषार्थ तारतम्य मुद्रा से मानना पड़ेगा। कुर्सी, मूढा, खाट, गदेला, तख्त, भूमि चौकी, पलंग, गाड़ी, हाथी, घोड़ा, ऊंट, खच्चर, टट्टू, अरबी घोड़ा आदि पर बैठने के स्वभाव न्यारे न्यारे हैं: सीधे टट्ट पर ही घरे रहनेवाले पण्डितजी महाराज तुर्की घोड़ा या ऊंट पर नहीं बैठ सकते हैं - क्योंकि उनके पास वैसे उसके उपयोगी स्वभाव या पुरुषार्थ नहीं हैं।