Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
श्लोक-वातिक
होजाता है, इस अन्य विद्वानों के समाधान में ग्रन्थकार की भी शुभ सम्मति है।
न चवं सर्वद्रव्येषु स्वहेतुके परत्वापरत्वे प्रसज्येते, निंबादी स्वहेतुकस्य तिक्तत्वाददर्शनादोदनादावपि तस्य स्रू हेतुकत्वप्रसंगात् निवादिसंस्कारानपेक्षापत्तेः ।
यदि यहां कोई यों कहे कि जैसे काल में परत्व अपरत्व स्वयं कृत हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण द्रव्यों में भी स्वयं निज को हेतु मान कर परत्व अपरत्व होजायंगे, व्यर्थ काल को मानने की आवश्यकता नहीं । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार प्रसंग नहीं उठाया जा सकता है, क्योंकि यों तो नीम, नीबू मिरच, लवण आदि में स्वयं को ही हेतु मान कर उपज रहे तिक्तपन (कडुग्रा) कटुपन (चरपरा) नुनखरा आदि रसों का देखना होने से भात. दाल, साग, आदि में भी प्राप्त हये उस कडुापन आदि को स्व यानी भात आदि को ही हेतु मानकर उपज जाने का प्रसंग आवेगा, ऐसी दशा में भात आदिको नीम, जीरा, मिरच, निवुवा आदि के संस्कार ( छोंक ) की अपेक्षा नहीं रखने की प्रापत्ति आवेगी जो किसी को इष्ट नहीं है, दीपकका स्व पर प्रकाशकत्व धर्म मिट्टीके घड़में नहीं धरा जा सकता है।
व्यवहारकालस्य परिणामक्रियापात्वापरन्वैग्नुमेयत्व च्च न मुरूपकालापेक्षया चौद्यमनयद्यं । द्विविधो ह्यत्र कालो मुख्यो व्याहाररूपश्च नत्र मुख्या पतनानुमेयः, परस्तु पगि णामाद्यनुमेयः प्रतिपादितः सूत्रेऽ यथा पारेणाम दग्रहणानर्थक्यप्रसंगान (तनांग्रहणेनेव पर्यातत्वात् ।
' एक बात यह भी है कि वर्तना करके मुख्य काल का अनुमान करा दिया गया था अब परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व करके व्यवहार कालका अनुमान कर लेना योग्य है, अतः मुख्य काल की अपेक्षा करके उठाया गया उक्त तक ( कटाक्ष निर्दोष नहीं है। देखो यहां प्रकरण में एक मुख्य दूसरा व्यवहार रूप यों काल दो प्रकारका माना गया है। उन दो में मुख्य काल प्राचार्य करके वर्तना के द्वारा अनुमान करने योग्य बताया जा चुका है, दूसरा व्यवहार काल तो परिणाम, क्रिया आदि करके अनुमान कर लेने योग्य है, यह सूत्र में समझा दिया गया है। अन्यथा यानी सूत्रकार द्वारा दो मुख्य और व्यवहार काल का प्रतिपादन किया जाना यदि नहीं माना जायगा तो सूत्र में परिणाम, क्रिया, आदि के ग्रहण के व्यर्थपन का प्रसंग होगा क्योंकि निश्चय काल को सिद्धि के लिये तो केवल सूत्र में वर्तना के ग्रहण करके ही परिपूर्ण कार्य का निर्वाह होजाता । अर्थात्-परिणाम आदिक व्यर्थ होकर ज्ञापन करते हैं. कि मुख्य काल से अतिरिक्त व्यवहार काल भी है। द्रव्य संग्रह में कहा है कि " दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो। परिणामादीलक्खो वट्टणलक्खोय परमट्ठो " शुद्ध द्रव्य मानेगये मुख्य काल में तो परत्व, अपरत्व, प्रत्यय उपजते ही नहीं हैं । वैशेषिकों ने भा मूत द्रव्यों में ही दैशिक या कालिक परत्व, अपरत्व स्वीकार किये हैं। फिर भी कोई यदि सुदर्शन मेरु की चोटी में बैठी हुई कालाणु की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि में धरी हुई कालाणु को पर कहे या सौ वर्ष पहिले की कालाणु की पर्याय को दश वर्ष पूर्व की कालाणु अपर पर्याय अपेक्षा पर कहे तो हमको काल में भी दिशा या व्यवहार काल करके किये गये परत्व, अपरत्व, मानने में कोई आपत्ति नहीं है, हां व्यवहारकालमें ही यदि परत्व अपरत्व धरा जाय तो वह स्वयं व्यवहार काल करके सम्पादित होजाता है जैसे कि प्रभावशाली धार्मिक पुरुष स्वयं धर्मको बढ़ाता हुमा दूसरे भद्र जीवोंको भी समीचान धर्मसे संस्कारित कर देता है, अतः व्यवहार काल की पुष्टि, करते समय मुख्य काल की अपेक्षा करके उठाया गया सुधक अच्छा नहीं है।