Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक- वार्तिक
विस्रसोत्पत्तिका तेजोवातांभः प्रभृतिष्वियं । 'सर्वाप्यदृष्टवैचित्र्यात् प्राणिनां फलभागिनाम् ॥ ४१ ॥
द्रव्य की हलन चलन आदि परिस्पन्द ग्रात्मक जो पर्याय भले प्रकार प्रतीत हो रही है वह क्रिया है जो कि पदार्थों के प्रकृत देश से अन्य देशों की प्राप्ति का कारण है, यह क्रिया गमन, भ्रमण, कुचन, आदि भेदों को धार रही है, जीव के प्रयोग करके उत्पत्ति होने से और जीवप्रयत्न के प्रतिरिक्त अन्य विस्रसा - आत्मक कारणों करके उत्पत्ति होजाने से वह क्रिया संक्ष ेप से तो दो प्रकार है, हां कुशल नृत्यकारिणी के नाच या ऐंजन, मशीन, यंत्रालय, आदिके अनेक परिस्पन्दोंकी अपेक्षा विस्तार से क्रिया के असंख्य भेद होसकते हैं, गेंद का ऊपर उछालना, नीचे कूदना, पेंता फांदना, पांव फैलाना इन उत्क्षेपण प्रादिक प्रभेदोंसे वह जीवप्रयोग करके उपज रही क्रिया फिर अनेक प्रकार की । दूसरी विस्रसा यानी जीव प्रयोगके सिवाय अन्य कारणों से जिस क्रिया की उत्पत्ति है ऐसी यह वैनसिक क्रिया तो तेजो द्रव्य, विजली. अग्नि, वायु, ग्रांधी, जलप्रपात, बादल, तरंगितसमुद्र, भूकम्प आदि में होरही अनेक प्रकार हैं ये सभी क्रियायें शुभ अशुभ फलको भोगने वाले प्राणियोंके पुण्य पाप कर्मोंकी विचित्रता से हो रही हैं । जगत् के बहुभाग कार्यों में जीवो का पुण्य पाप ही साक्षात् या परम्परा से कारण पड़ जाता है।
क्रिया क्षणक्षयैकांते पदार्थानां न युज्यते । भूतिरूपापि वस्तुत्वहाने रेकांत नित्यवत् ॥४२॥ क्रमाक्रमप्रसिद्धिस्तु परिणामिनि वस्तुनि । प्रतीतिपदमापन्नाप्रमाणेन न वाध्यते ॥ ४३ ॥
बौद्धों के यहाँ माने गये क्षणिकपन के एकान्त पक्ष में पदार्थों की क्रिया का होना युक्त नहीं पड़ता है क्योंकि कुछ पूर्वदेशस्थिति की अवस्था को त्याग रहे और उत्तर देशस्थिति की अवस्था को ग्रहण कर रहे तथा श्रन्वित रूप से कालान्तर स्थायी होरहे नित्य, अनित्य- श्रात्मक पदार्थ में ही क्रिया होना सम्भवता है "भूतिर्येषां क्रिया प्रोक्ता" जिन बौद्धों के यहां सर्वथा असत् की उत्पत्ति को ही पदार्थ की क्रिया माना गया है सो भी ठीक नहीं है क्योंकि 'नैवासतो जन्म, सतो न नाशो" सर्वथा श्रसत् का उत्पाद नहीं होता है और सत् का सर्वथा विनाश नहीं होता है, परिणामी वस्तु का कथंचित् उत्पाद, विनाश होता रहता है अतः कूटस्थ नित्यपन का एकान्त मानने वाले सांख्यों के यहां जैसे सर्वथा नित्य पदार्थ में क्रिया नहीं होपाती है उसीके समान क्षणिकपक्ष में भी क्रिया नहीं सम्भवती पदार्थों में परिस्पन्द या परिस्पन्द स्वरूप क्रिया को माने विना वस्तुत्वकी हानि है, जैसे कि खर विषारण कोई वस्तु नहीं है ।
'सत्वमर्थक्रियया व्याप्तं' 'अर्थ - क्रिया क्रमयोगपद्याभ्यां व्याप्ता' अर्थ - क्रिया को करने वाला पदार्थ ही सत् है, प्रत्येक सत् पदार्थ में क्रमसे या युगपत् श्रर्थक्रिया श्रवश्य होती रहती है। क्रम और प्रक्रम की प्रसिद्धि तो परिणाम को घारने वाली वस्तु में होरही जो कि किसी भी प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रादि प्रमाण करके
सन्ती प्रतीतियों के स्थान को प्राप्त हो रही है वाधित नहीं है । अर्थात् श्री अकलंक देव का