Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम - श्रध्याय
कूटस्थनित्यवादी कहते है कि जो जिसप्रकार जहां जिस समय जिससे अतिशय उपजता है । उसका उस प्रकार वहां उस समय आश्रय श्राश्रयीभाव होजाता है, यों इस प्रकार इतना आत्मा आदि भाव का एक ही स्वभाव है, अतः कोई दोष नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि आप कूटस्थवादियों को एक आत्मा, आकाश आदि भावों की परिकल्पना करने से विरोध उपस्थित हो जायगा । पृथिवी, जल प्रादि अतिशयों को एक आत्मा के अतिशय होजाने का प्रसंग होजायगा, हम यो नियम से कह सकते हैं कि एक हो आत्मा इस प्रकारके होरहे स्वभावों को धार लेता है, कि जिस करके जिस प्रकार, जहां, जब, पृथिवी-प्रादिक अतिशय उत्पन्न होते हैं उनका उस प्रकार वहां, तब, आश्रय हो जाता है, इस प्रकार वे पृथिवी प्रादिक उस आत्मा के अतिशय ही हैं । किन्तु फिर अन्य द्रव्यों के अतिशय नहीं हैं । कूटस्थ नित्यवादी कहते हैं कि पृथिवी प्रादिक द्रव्यों का प्रभाव मानने पर वे अतिशय आत्मामें भला किन कारणोंसे उपज जायंगे ? यों कहने पर तो यही कहा जा सकता है कि अन्य अतिशयों से वे अतिशय उपज जायंगे और ये अन्य अतिशय भी तीसरे, चौथे, पांचवें, आदि निराले अतिशयों से उपजते रहेंगे इस प्रकार अनादि काल से अतिशयों की परम्परा का स्वीकार कर लेने से कोई उलाहना नहीं प्रासकता है ।
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अस्त्येक एवात्मा पुरुषाद्वे ताभ्युपगमादित्यपरः तस्यापि नात्मातिशयः परिणामो द्वैतप्रसंगात् । अनाद्यविद्योपदर्शिनः पुरुषस्यातिशयः परिणाम इति चेत् तर्हि न वास्तव: परिणामः पुरुषाद्वतवादिनोस्ति ।
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ऐसे अवसर पर अपने पक्ष को पुष्ट हुआ देख कर ब्रह्माद्वैतवादी बोल उठते हैं कि जगत् में एक ही तो आत्मा है क्योंकि पुरुषाद्वैत-वाद को स्वीकार कर रखा है । इस प्रकार किसी पर पण्डित के कहने पर आचाय कहते हैं, कि उस ब्रह्माद्वैतवादी के यहां भी आत्मा का अतिशय होरहा परिणाम नहीं माना जा सकता है । क्योंकि निराले अतिशय स्वरूप परिणाम और परमब्रह्म को मानने से द्वैतवाद का प्रसग 'जावेगा यदि अद्वैतवादी यों कहैं कि अनादि काल से लगी हुई अविद्या करके उपदर्शित होरहे परम ब्रह्म का अतिशय ही परिणाम है, वस्तुतः एक परम पुरुष ही पदार्थ है, अन्य कोई नहीं । यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि तब तो पुरुषाद्व तवादी के यहां वास्तविक परिणाम नहीं सिद्ध हुआ, अविद्या के द्वारा दिखलाये गये झूठे अतिशय को परिणाम मानने पर यथार्थ परि गाम की सिद्धि नहीं होपाती है, अतः कूटस्थ नित्यवादी या ब्रह्माद्वैतवादोके यहाँ परिणाम नहीं बन पाता है ।
योप्याह, प्रधानादनर्थान्तरभूत एव महदादिः परिणाम इति, सोप्ययुक्तवादी, सर्वथा प्रधानादभिन्नस्य महदादेः परिणामत्वविरोधात् प्रधान - स्वात्मवत् तस्य वा परिणामत्वप्रसंगात् महदादिवत्, ततो न प्रधानं परिणामि घटते नित्यैकस्वभावत्वादात्मवत् ।
जो भी सांख्य यों कह रहा है कि सत्वगुण, तमोगुण, रजोगुण, की साम्य अवस्था रूप प्रधानसे महत, अहंकार, आदि परिणाम हो रहे अभिन्न हैं " प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद्गरणश्च षोडशक: तस्मादपि षोडशकात्पंचभ्यः पंचभूतानि " । ग्रन्थकार कहते हैं कि वह सांख्य भी युक्तिरहित पदार्थों के कहने की टेव को धारता है। क्योंकि प्रधान से सभी प्रकार प्रभिन्न हो रहे महत्तत्व, ग्रहंकार सादि -