Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
१८१
यों कहैं कि परिणाम-वादी नैयायिक, जैन, आदि दूसरे विद्वानों के स्वीकार कर लेने से तदनुसार
भी उस परिणाम की सिद्धि मान लेते हैं। इस पर ग्रन्थकार कहते हैं कि तब तो तिस ही कारण से यानी दूसरोंके स्वीकार कर लेने मात्र से वृद्धि की सिद्धि भी होजाओ, सभी प्रकारों से कोई विशेषता नहीं है। दूसरे विद्वानों का एक स्वीकृत अश माना जाय और दूसरा प्रतीतसिद्ध अंश नहीं माना जाय यों श्रद्धंजरतीय न्याय का अनुसरण करना प्रशस्त पाग नहीं है, तिस कारण वृद्धि का अभाव होजाने से परिणामका अभाव यह स्याद्वादियोंके प्रति नहीं साधा जा सकता है। हां सर्वथा एकान्त वादियों के प्रति परिणाम का अभाव होजाने से वृद्धि का प्रभाव प्रसिद्ध कर दिया ही जाता है। जैसे कि सर्वथा नित्यपन या सर्वथा क्षणिकपन को मान बैठे एकान्त-बादी पण्डितों के यहां जन्म, अस्तित्व आदिक का प्रभाव प्रसिद्ध होजाता है, इस बात का हम पूर्व प्रकरणों में कई वार निवेदन कर चुके हैं। अभी चौथे अध्याय के अन्त में भी जन्म, अस्तित्व, विपरिणाम, वृद्धि, अपक्षय और विनाश इन विकारों की स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार प्रक्रिया मानने पर ही सिद्धि बताई जा चुकी है, अन्यथा नहीं।
न हि नित्यैकांते परिणामोम्ति. पूर्णकारविनाशाजहवृत्तोत्तराकारोत्पादानभ्युपगमात् स्थितिमात्रावस्थानात् न च स्थितिमात्रं परिणामः तप्य पूर्वोत्तराकारपरित्यागोपादानभावस्थितिलक्षणत्वात् ।
सर्वथा नित्यपन का एकान्त मानने पर परिणाम होना नहीं बन पाता है क्योंकि परिणाम का अर्थ तो पूर्व प्रकार का विनाश और कुछ ध्रव अशों को नहीं छोड़ कर वर्तना तथा उ का उत्पाद होना है “पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च" किन्तु नित्य एकान्त में उक्त परिणाम होना नहीं स्वीकार किया गया है वहाँ तो केवल स्थिति ही अवस्थित रहती है , पूर्व प्रकार का त्याग और उत्तर प्राकारों का ग्रहण नहीं सम्भवते हैं । केवल ध्रौव्य अंश करके स्थिति होना ही तो परिणाम नहीं है, क्योंकि उस परिणाम का लक्षण पूर्व आकार का परित्याग और उत्तर प्राकर का उपादान तथा ध्रव भाव ( आकार ) की स्थिति इतना अखण्ड है।
सदा स्थास्नोरात्मादेरर्थान्तरभृतोतिशयः कुतश्वि दुपजायमानः परिणाम इति चेत्, स तम्येति कुन: ? तदाश्रयत्वादिति चेत् , कथमेकस्वभावमात्मादि वस्तु कदाचित्कायचिदतिशयस्याश्रयः कदाचित्त्व यस्येति संभाव्यते ? स्वभावविशेषादिात चेत, तर्हि येन स्वभावविशेषेण श्रयः कस्यचिद्भावो येन बानाश्रयः स ततोनान्तरभूतश्चेत्तन्नित्यत्वैकांतविरोधः । स ततोर्थान्तरभूतश्चेत्तस्येति कुतः ? तदाश्रयत्वादिति चेत्, स एव पर्यनुयागोनवस्था च । सुदूरमपि गत्वा तस्य कथंचिदनान्तरभूतस्वभावविशेषाभ्युपगमे कथं ततोर्थान्तरभूतोतिशयः परिणामस्तदाश्रयः स्यात् ।
नित्यकान्तवादी कहते हैं कि सर्वथा स्थिति-शील होरहे प्रात्मा, प्राकाश, आदिक अर्थों से सर्वथा भिन्न पदार्थ होरहा अतिशय ही किन्हीं कारणों से उपज रहा सन्ता परिणाम है, परिणामी से परिणाम अभिन्न नहीं है । यों कहने पर तो ग्रन्थकार पूछते हैं, कि वह भिन्न पड़ा हुआ अतिशय स्वरूप