Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पचम-अध्याय
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से स्वप्नज्ञान या भ्रान्तज्ञान निविषय हैं, उसी प्रकार प्रतिषेध के षष्ठयन्त प्रतियोगी विषय का प्रभाव होजानेसे प्रतिषेध निविषय होजायगा।
खरविषाणप्रतिषेधः कथमिति चेत्, न कथमपि सत्त्वाद्यकांतवादिनामिति बमः। तदनेकांतवादिनां तु चित्कदाचित्कथंचित् सत एवान्यनान्यदान्यथा प्रतिषेध इति सर्वमनवद्यम् ।
___ ग्रन्थकार के प्रति किसी का प्रश्न है कि तब तो खरविषाण का प्रतिषेध किस प्रकार कर सकोगे ? यहाँ तो प्रतिषेधका प्रतियोगी कोई वस्तुभूत विषय नहीं है, यस्याभावः स प्रतियोगी। यों कहने पर तो आचायं कहते हैं, कि सर्वथा सत्त्व या सर्वथा अत्व आदिक एकान्तका आग्रह कर रहे वादियों के यहां किसी भी प्रकार से खरविषारण का निषेध नहीं होसकता है। ऐसा हम ढिंढोरा पीट कर स्पष्ट कह रहे हैं, हां उन कथंचित् सत्व आदि का अनेकान्त मानने वाले सिद्धान्तियोंके यहां तो कहीं न कहीं, कभी न कभी, किसी भी प्रकार से, सत् होरहे ही पदार्थका अन्य स्थल पर अन्य काल में दूसरे प्रकारों से निषेध किया जा सकता है। यों कहने पर हम स्याद्वादियों के यहां सम्पूर्ण व्यवस्था निर्दोष सिद्ध होजाती है। वात यह है कि जगत् में खर भी है बैल, भैंस आदि के सिर पर विषाण भी विद्यमान हैं केवल खरके सिर पर विषारणोंका प्रभाव साध दिया जाता है। प्रष्टसहस्रीमें अद्वत शब्दः स्वाभिधेयप्रत्यनीकपरमार्थापेक्षो नापर्वाखण्डपदत्वाददेवभिधानवत" इस अनुमान द्वारा बढिया निरूपण कर दिया गया है। श्री प्रकलंक देव ने तो मन्डूक को चोटी अथवा खर के विषारण को भी अनेक युक्तियों से पुष्ट करके स्वकीय स्याद्वाद वाणी का वैभव दरशाया है।
मर्वथैकांतस्य प्रतिषेधः कथमिति चेत, कोऽयं सर्वथैतः । इदमेवेत्थमेवेति वा धर्मिणो धर्मम्य वाभिमननमिति चेत, तर्हि तम्य सत एव निषियसाधनमेव प्रतिषेधः । स्वरूपप्रतिषेधे तु मर्वथा प्रतीतिविरोधः स्यात् । दर्शन मोहोदये सति सदाद्यकांताभिनिवेशस्य मिथ्यादर्शनविशेषस्य प्रत्यान्मवेद्यस्वात् । निविषयत्वसाधने तु तस्य न प्रतीतिवाधा प्रतीयमानस्य वस्तुनि सवाद्यशम्य धर्मत्यत् । नायं पर्वथा मत्वाद्येकांताभिनिवेशम्य विषयो वस्त्वंशः सर्वथा विरोधात् ।
पुन: कोई प्रश्न करता है कि आप जैन सर्वथा एकान्त का भला प्रतिषेध किस प्रकार करोगे क्योंकि सर्वथा एकान्त को सद्भूत मानने पर उसकी विधि हुई जाती है। एकान्तको जानने वाला ज्ञान प्रमाण होजायगा, असत् एकान्तका आप निषेध होना इष्ट नहीं करते हैं । यह विकट समस्या उपस्थित हुई । यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं,कि भाई यह सर्वथा एकान्त भला क्या पदार्थ है ? बताओ, यह यही है, अथवा इस ही प्रकार है, यों धर्मी अथवा धर्मको कदाग्रह पूर्वक माने जाना यदि सर्बदा एकान्त इष्ट है, यों कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो उस सत् भूत ही सर्वथा एकान्त के अभिनिवेश को विषयरहित साधन कर देना ही उसका प्रतिषेध है यानी सर्वथा एकान्त के ज्ञान का कोई वस्तुभूत विषय नहीं है जैसे कि स्वप्नज्ञान तो परमार्थ है किन्तु उसका विषय वस्तुभूत नहीं है । इसी प्रकार मिथ्याष्टियों के यहां सर्वथा एकान्त का आग्रह है किन्तु वह कोरा मन्तव्य निर्विषय ही है।