Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लाक- वार्तिक
है । कम से कम जिस परस्त्री से उनका स्नेह है, उसकी हिंसा करना उनको अभिप्र ेत नहीं है । तथापि कोई कोई दुष्ट जीव परदारा-सेवी होते हुये भी हिंसक होरहे हैं । परस्त्री करके अन्य पुरुष के ऊपर स्नेह करने की शंका होजाने पर वे उस परदारा की हिंसा तक कर देते हैं, पर-पुरुष-रत स्त्रियां भी अपने रसिक को मार डालती सुनी गयी हैं । किन्तु जो धर्मात्मा जीव सुदर्शन सेठ के समान है, हिंसक नहीं है, और परदार-सेवी भी नहीं है वह उन हिंसक और पारदारिक दूषित पुरुषों से तीसरी ही जाति का सज्जनोत्तम है ।
दूसरा दृष्टान्त यो समझिये कि एक दूसरेसे पृथक भूत हो रहे अकेले गुड़ और अकेली सोंठ के संयोग से उपजा हुआ अशुद्ध द्रव्य तीसरे ही प्रकारका है, अकेला गुड़ या सोंठ जिस रोग को दूर नही कर सकते हैं उस विशेष जाति की खांसी को मिला लिये गये गुड़ और सोंठ मिटा देते हैं। क्योंकि दोनों की मिलकर पुनः तीसरी ही जाति की न्यारी परिणति होजाती है । अकेले .. केले गुड़ या सोठ के रस से मिले हुये गुड़ सोंठ का रस तीसरी जाति का उपज जाता है, इसी प्रकार कथंचित् सदसत्व पक्ष में कोई उभय दोष नहीं प्राप्त होता है । इस उक्त कथन करके केकान्त पक्ष में विरोध श्रादिक दोषों का भी परिहार कर दिया जा चुका देख लेना चाहिये अर्थात् - विरोध, वैयधिकरण्य, संशय, संकर व्यतिकर अनवस्था, प्रभाव, अप्रतिपत्ति ये दोष अनेकान्त पक्ष में नहीं आते हैं । उभय दोष के समान विरोध आदि दोषों का उपद्रव भी द्रव्यत्व, पृथिवीत्व, नामक सामान्यविशेष या चित्रज्ञान, संयुक्त गुड़ सोंठ, प्रादिदृष्टान्तों करके दूर भगा दिया जाता है ।
किं च परिणामस्य प्रतिषेधो न तावत्सतः सच्चादेव परिणामप्रतिषेधःत् मतोपि प्रतिषेधे परिणाम - प्रतिषेधस्यापि प्रतिषेधप्रसंगात् प्रतिषेधाभावः । अथ प्रतिषेधः सत्वान्न प्रतिषिध्यते तत एव परिणामोपि न प्रतिषेद्धव्य इति स एव प्रतिषेधाभावः न प्यसतः प्रतिषेधः
सत्वादेव नासन्प्रतिषेधमियान्निर्विषयत्वप्रसंगात् ।
एक बात यह भी है कि परिणाम का जो प्रतिषेध किया जाता है, उसमें हम दो पक्ष उठाते हैं कि सद्भूत परिणाम का प्रतिषेध किया जाता है ? अथवा प्रसत् होरहे परिणाम का निषेध किया जाता है ? वताश्रा प्रथम पक्ष अनुसार विद्यमान हो रहे सत् परिणाम का तो प्रपिषेध नहीं हो सकता है । कारण कि वह परिणाम सन् ही है जैसे कि कूटस्थ वादियों के यहाँ परिणाम के सभूत माने गये प्रतिषेध का निषेध नहीं किया जा सकता है। जब कि परिणाम का प्रतिषेध विद्यमान माना गया है। तो भला उसका निषेध कैसे होसकता है ? यदि सद्भूत पदार्थ का भी निषेध कर दोगे तो परिणाम के भी निषेध होजाने का प्रसंग प्रावेगा। ऐसी दशा में प्रतिषेध हो ही नहीं सकता है । दो श्रमात्र भाव रूप होजाते हैं । निषेध का निषेध कर दियाजाय तो विधि सिद्ध होजाती है । यदि कूटस्थवादी अब यो कहें कि परिणाम का प्रतिषेध तो विद्यमान है। इस कारण नहीं निषेधा जाता है ग्रन्थकार कहते हैं, कि तिस ही कारण परिणाम भी प्रतिषेध करने योग्य नहीं है । इस प्रकार वही परिणाम के प्रतिषेध का अभाव होगया यानी परिणामका सद्भाव बन गया । तथा द्वितीय पक्ष अनुसार असत् होरहे परिणाम का भी प्रतिषेध असत् होनेके कारण ही नहीं होसकता है “ संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याहते क्वचित्" प्रतिषेध्यके विना उसका प्रतिषेध नहीं होसकता है । सर्वथा असत् होरहा पदार्थ कभी प्रतिषेध को प्राप्त नहीं हो सकता है, अन्यथा प्रतिषेधको निर्विषयपन का प्रसंग आवेगा । जैसे वस्तुभूत विषय के नहीं होने
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