Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
बाधा उपस्थित हुई थी, जो प्रमाण पक्ष में हुये क्रिया और क्रियावान् को ग्रहण करेगा वह उनको कथंचित् श्रभिन्न ही जानेगा तथा तुम्हारे सर्वथा प्रभिन्नदेशपन हेतु का उन वायु, धूप, आदि करके ही कालात्ययापदिष्टपना भी समझा जाता है अर्थात् - क्रिया और क्रियावान् प्रमाणों द्वारा सर्वथा अभिन्न नहीं प्रतीत होरहे हैं, अतः सर्वथा अनन्यदेशत्व हेतु वाधित हेत्वाभास है ।
निष्क्रियाः सर्वथा सर्व भावाः स्युः क्षणिकत्वतः । पर्यायार्थतया लब्धिं प्रतिक्षणविवर्तवत् ॥ ६० ॥ इत्याहुयें न ते स्वस्थाः साधनस्याप्रसिद्धितः । न हि प्रत्यक्षतः सिद्ध क्षणिकत्वं निरन्वयं ॥ ६१ ॥ साधर्म्यस्य ततः सिद्धेर्वहिरन्तश्च वस्तुनः । इदानींतनता दृष्टिर्न क्षणक्षयिणः क्वचित् ॥
६२ ॥
७०
कालांतरस्थितेरेव तथात्वप्रतिपत्तित: । ( षट् पदी ) ॥ ६३ ॥
यहाँ बौद्ध कह रहे हैं कि सम्पूर्ण पदार्थ ( पक्ष ) सब ही प्रकारों से क्रिया - रहित हैं ( साध्य ) क्षणिक होने से ( हेतु ) । पर्यायार्थ स्वरूप से आत्मा लाभ कर रहे प्रतिक्षरण होने वाले परिणाम के समान (ष्टान्त । अर्थात् - बौद्ध लोग किसी भी पदार्थ में क्रिया को नहीं मानते हैं, फेंका जा रहा डेल या दौड़ता हुआ घोड़ा उन उन प्रदेशों में सर्वथा नवीन ढंग से उपजता जा रहा है, पूर्व समय में जिन प्रकाश के प्रदेशों पर घोड़ा उपजा था, दूसरे समय में उसका सर्वथा विनाश होकर अगले प्रदेशों पर नवीन घोड़े का श्रसत् उत्पाद हुआ है, यही ढंग कोसों तक के प्रदेशों पर सत् का विनाश और असत् का उत्पाद करते हुये मान लेना चाहिये । पर्याय-पदार्थ ही प्रात्मलाभ करता है, द्रव्य कोई वस्तु नहीं है, प्रतिक्षण में होने वाली तद्देशीय पर्याय जैसे क्रियारहित है उसी प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ क्रियारहित हैं । सिनेमा में फिल्म के वही चित्र दौड़ते नहीं हैं केवल दूसरे दूसरे चित्र प्राते जाते हैं, और देखने वालों को उन्हीं के दौड़ने, घूमने, नाचने का भ्रम होजाता है ।
प्राचार्य कहते हैं कि इस प्रकार जो कह रहे हैं वे बौद्ध भी स्वस्थ नहीं हैं, रोगी पुरुष ही ऐसी प्रण्ट सण्ट अयुक्त बातों को कह सकता है, क्योंकि उनके कहे हुये क्षणिकत्व हेतु की प्रमाणों से सिद्धि नहीं हुई है, देखिये निरन्वय क्षणिकपना प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध नहीं है वहिरंग घट, पर्वत, काष्ठ, सुवर्ण, आदि वस्तुनों के और अन्तरंग आत्मा आदि वस्तुओं के सधर्मापन यानी अन्वयसहितपन की उस प्रत्यक्ष से सिद्धि होरही है जो कोई पदार्थ एक ही क्षण तक स्थायी होकर क्षणिक होता तो इस ही काल में वृत्तिपने करके उसका दर्शन होता किन्तु कहीं भी क्षरणमात्र में क्षय होजाने वाले पदार्थ का इस एक ही समय काल में वृत्तिपने करके दर्शन नहीं होता है । कालान्तर तक स्थिति की ही तिस प्रकार ने करके प्रतिपत्ति होरही है। बिजली, प्रदीप, बुदबुदा, आदि पदार्थ भी अनेक क्षणों तक स्थित रहते हैं, अत: प्रत्यक्ष प्रमाण से अन्वय-रहित होरहे सर्वथा क्षणिकपन की प्रतीति नहीं होती है ।