Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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इलोक-बातिक
का अपने अपने में प्रवगाह होना मान लिया जाय फिर भी व्यवहार नय और निश्चयनय तथा प्रमाण दृष्टि से एक आकाश पदार्थ ही स्व और अन्य सम्पूर्ण पदार्थों का अवगाह्य प्रतीत होरहा है।
सर्वार्थानां क्षणिकपरमाणुस्वभावत्वात् अवगाह्यावगाहकमावाभाव इति चेन्न, स्थूलस्थिमाधारणार्थप्रतीतेः न चेयं भ्रांतिधिकामावात् एकस्यानेकदेशकालव्यापिनोर्थस्याभावे सर्वशून्यतापत्तः। भावे पुनरवगाह्यावगाहकभावविरोध एवाधाराधेयभावादिवत्
प्राधार आधेय भाव हिस्य हिंसक भाव, आदि को नहीं मानने वाले बौद्ध कह रहे हैं, कि सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं और परमाणु स्वरूप हैं, अतः अवगाह्य अवगाहक भाव का अभाव है । अर्थात्-कालान्तर-स्थायी पदार्थ यदि होते तबतो पहिले से वर्त रहे अाधार के ऊपर कोई प्राधेय ठहर जाता, इसी प्रकार लम्बे, चौड़े, स्थूल या व्यापक पदार्थ पर उससे कुछ छोटा पदार्थ अवगाह कर लेता है, किन्तु जब परमाणु स्वरूप ही छोटे छोटे पदार्थ हैं । और वे भी एक क्षण ज वित रह कर दूसरे क्षण में मर जाते हैं, ऐसी दशा में कोई किसी का प्राधार या कोई किसी का प्राधेय नहीं होसकता है। म रहा मनुष्य मर रहे घोड़े पर नहीं चढ़ सकता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि प्रामाणिक पुरुषों को स्थूल और स्थिर तथा साधारण अर्थों की प्रतीति होरही है । तुम्हारे मन्तव्य प्रनुसार सूक्ष्म, अस्थिर और विशेष स्वरूप हो अर्थ की स्वप्न में भी प्रतीति नहीं होती है। यह प्रतीति भ्रान्तिज्ञान रूप नहीं है, क्योंकि इस समीचीन प्रतीति का कोई वाधक नहीं है। यदि अनेक देश और अनेक कालों में व्याप रहे स्थूल और कालान्तर-स्थायी एक अन्वित पदार्थ का प्रभाव माना जायगा तो सम्पूर्ण पदार्थों के शून्य होजाने की आपत्ति आवेगी। यानी अनेक देशव्यापी पदार्थों को नहीं मानने पर दृष्टि गोचर सम्पूर्ण स्थूल पदार्थों का प्रभाव तो हो ही जायगा, हां सूक्ष्म पदार्थ रह जायंगे किन्तु उन सूक्ष्मों को यदि अनेक-काल-व्यापी नहीं मानकर क्षणिक स्वीकार किया जायगा तो उत्तर क्षण मे समूलचूल विनाश जाने पर पुनः विना उपादान के किसी की भी उत्पत्ति नहीं होने पायगी और पहिले भी तो उपादानके विना सूक्ष्मपदार्थ नहीं उपज सकेगा यों बौद्धोंके विचार अनुसारहो शून्यवाद छा जायगा हां यदि अनेक देश या अनेक कालोंमें व्याप रहे पदार्थोंका सद्भाव मानोगे तब तो फिर अवगाह्य प्रव. गाहक भाव का विरोध ही नहीं है। जैसे कि प्राधार-प्राधेय भाव, कार्य-कारण भाव, वाध्य-वाधक भाव, आदि का कोई विरोध नहीं है।
अर्थात्-मीमांसक, नैयायिक, वैशेषिक, जैन ये विद्वान तो प्राधार आधेय भाव, काय कारण भाव, आदिकको निर्विवाद स्वीकार करते ही हैं किन्तु बौद्धोंको भी आधार आधेय, भाव मानना आवश्यक पड़ जाता है । क्षणिकत्व, सत्व आदि धर्म पदार्थ में ठहरते हैं, पक्ष मे हेतु रहता है। बौद्ध उत्पाद को कारणसहित स्वीकार करते हैं, भले ही वे विनाश को निर्हेतुक माने, अतः उत्पाद्य और उत्पादक पदार्थों का कार्य-कारण भाव अभीष्ट हुआ तथा क्षणिकत्व का ज्ञान कालान्तर-स्थायीपन के समारोप का वाधक माना गया है। सौत्रान्तिकों के द्वैतवाद पर विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार वाधा उठाते हैं, यों “वाध्य वाधक भाव" क्लुप्त होजाता है । साध्य और हेतु में ज्ञाप्यज्ञापक भाव तो सभी दार्शनिकों को स्वीकृत है, इसी प्रकार "अवगाह्य अवगाहक भाव" सुप्रसिद्ध है।
शीतवातातपादीनामभिन्नदेशकालतया प्रतीतेः स्वावगाडावगाहकमावसिद्धिः । पर स्परमवगाहानुपपत्तौ मिनदेशत्वप्रसंगाल्लोष्ठद्वयवत् । ततो यथाप्रतीति-नियतानामवगाहकानां