Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
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देकत्वप्रत्ययप्रवृत्तिः । जीवाजीव-तदभेदप्रभेदैः संवध्यमाना विशिष्टा शक्ति भरनेकत्व मास्कंदतीति स्वसत्ताया अनुभूतिः सा वर्तना वर्त्यमानत्वात् वर्तनमात्रत्वाद्वा तदुच्यते ।
किसी का प्रश्न है कि यह वर्तना फिर क्या पदार्थ है ? ग्रन्थकार इसका समाधान यों देते हैं, कि जिस स्वकीय सत्ता की अनुभूति ने द्रव्य की प्रत्येक पर्याय के प्रति उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य-प्रात्मक एक वृत्ति को एक ही समय में गर्भित कर लिया है। वह स्वकीय सत्ता का तदात्मक रस स्वरूप अनुभवन करना वर्तना है, यहाँ ज्ञान स्वरूप अनुभव नहीं लिया गया है । किन्तु स्वकीय केवल उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यों की यूगपत प्रवृत्तिरूप सत्ता की प्रत्येक पदार्थ में पाई जाने वाली एक-रसता ग्रहण की गई है। इस वर्तना के अकलंक लक्षण का प्रथं इस प्रकार है कि "उत्पादव्ययध्रौव्य-युक्तं सत्, सद्रव्यलक्षणं गुणपर्ययवद्रव्य" इनसूत्रों करके द्रव्य का लक्षण भविष्य में कहा जाने वाला है। उस द्रव्य की पर्याय को द्रव्यपर्याय कहा जाता है। द्रव्य-पर्याय, द्रव्यपर्याय के प्रति जो वह प्रतिद्रव्य पर्याय है, यों षष्ठीतत्पु रुष पूवक अव्ययीभाव समास वृत्ति की गयी है। जिसने एक समय को अन्तरंग में प्राप्त कर लिया है, वह "अन्तर्नीतैकसमया" है । फिर वह अन्तर्हतैकसमया क्या है ? इसका उत्तर स्वकीय सत्ता का अनभव करना है, केवल अपनी ही सत्ता को स्वसत्ता कहा गया है। अन्य पदार्थों में साधारण रूप से नहीं पाई जा रही वह सत्ता है. इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि उत्पत्ति, व्यय, और ध्रौव्यों की ए करके वृत्ति होना सत्ता है। स्वयं सूत्रकार का इस प्रकार वचन है, कि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यों से युक्त यानी तदात्मक वर्त रहा सत् है ।
वैशेषिक विद्वान् सत्ता को अन्य अनेक पदार्थों में साधारण रूप से वर्त्त रही एक, नित्य, तथा स्वकीय पाश्रय होरहे द्रव्य, गुण, कर्मों मे सर्वथा भिन्न स्वीकार करते हैं । वैशेषिक दर्शन के प्रथम अध्याय में सूत्र है "द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं सत्ता" किन्तु यह वैशेषिकों का मन्तव्य युक्तिसिद्ध नहीं बन पाता है क्योंकि अपने आश्रय माने गये द्रव्य आदि से सर्वथा भिन्न होरही सत्ता जाति प्रतीत नहीं होती है। वैशेषिक यों मान बैठे हैं कि प्रथिवी द्रव्य, जल द्रव्य, आत्मा द्रव्य इत्यादिक द्रव्य द्रव्य की पीछे पीछे प्रवृत्ति होना स्वरूप ज्ञापक हेतु करके वह द्रव्यत्व जाति जैसे एक है, उसी प्रकार सद् सत् द्रव्यं सत् है. गुणः सत् है, कर्म सत है, इस प्रकार की बुद्धि और शब्दों की अनुप्रवृति होना स्वरूप लिंग करके अनुमित की जारही वह सत्ता जाति एक ही है " सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता" ।७। वंशेषिक दर्शन के सातमें अध्याय का सत्र है। सत इस प्रकार का ज्ञान या लोकव्यवहार जिससे गरण, कर्मों में होता है वह सत्ता है । ग्यारहवांसूत्र यह है, कि “सदिति लिंगाविशेषादविशेषलिंगाभावाच्चैको भावः ।। १७ :" द्रव्य गुण कर्मों में सत् सत् ऐसा ज्ञापक लिंग विशेषता-रहित होकर प्रवर्तता है, और सत्ताके विशेषोंका सूचक कोई अन्य लिंग नहीं है, इस कारण भाव यानी सत्ता पदार्थ एक ही है।
प्राचार्य कहते हैं कि वैशेषिकों का कहना अयुक्त है क्योंकि सदृशपन के उपचारसे उन सत्तामों के एकपने का ज्ञान प्रवर्त जाता है। हां वस्ततः विचाराजाय तो जीव, अजीव, पदार्थ और उनके भेद प्रभेद होरहीं अनेक व्यक्तियों के साथ अविष्वग्भाव सम्बन्धको प्राप्त होरही वह सत्ता या सत्ता शक्तियों करके अनेकपन को प्राप्त कर लेती हैं अर्थात्-अनेक द्रव्यगुण कर्मों में यदि एक सत्ता व्यापती तो अन्तराल में अवश्य दीखती। दूसरी बात यह है कि घट के उपजने पर वह सत्ता कहां से आकर घट के साथ सम्बन्धित होजाती है ? बताओ, यदि वहां ही प्रथम से विद्यमान थी तो आश्रयके विना भला