Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पेचम-अध्याय
निज में वर्तना करने की प्रसिद्धि होरही है जैसे कि आकाश दूसरों को अवगाह देता हुआ स्वयं को भी अवगाह दे देता है, ज्ञान अन्य पदार्थोंको जानता हुआ भी जान लेता है।
तथैव सवभावानां स्वयं वृत्तिन युज्यते।
दृष्टेष्टवाधनात्सर्वादीनामिति विचिंतितम् ॥१३॥
यहां किसी का यह कटाक्ष करना युक्त नहीं है कि जिस प्रकार काल स्वयं अपनी वर्तना का प्रयोजक हेतु है उस ही प्रकार सम्पूर्ण पदार्थों की स्वमेव वर्तना होजायगी कारण कि घट, पट प्रादि सम्पूर्ण पदार्थों को स्वयं वतना का प्रयोजक हेतुपना मानने पर प्रत्यक्ष, अनुमान, आदि प्रमाणों करके वाधा आती है, इस बात का हम पूर्व प्रकरण में विशेष रूप से विचार कर चुके हैं, प्रदीपका स्वफ्रोकोतन स्वभाव है, घट का नहीं । कतक फल या फिटकिरी स्वयं को और कीच को भी पानी में नीचे बैठा देते हैं, वायु या फेन नहीं।
न दृश्यमानतैवात्र युज्यते वर्तमानता। वर्तमानस्य कालस्याभावे तस्याः स्वतो स्थितेः ॥१४॥ प्रत्यक्षासंभवासक्तरनुमानाद्ययोगतः।
सर्वप्रमाणनिन्हुत्त्या सर्वशून्यत्वशक्तितः ॥१५॥ मुख्य काल और व्यवहारकाल को नहीं मानने वाले बौद्ध यहां कटाक्ष करते हैं कि वर्तमान काल कोई पदार्थ नहीं है, निर्विकल्पक दर्शन द्वारा जो पदार्थों की दृश्यमानता है वही वर्तमानता है अत एव इस अन्यापोह रूप धर्म को ही वर्तना कहा जा सकता है, इसके लिये इतने लम्बे चौड़े कार्य कारण भाव के मानने की अवश्यकता नहीं । प्राचाय कहते हैं कि यह बौद्धों का कहना युक्तिपूर्ण नहीं है क्योंकि वर्नमान काल का प्रभाव मानने पर उस दृश्यमानता की स्वयं अपने आप से व्यवस्था नहीं होसकती है क्योंकि "दृशि प्रेक्षणे" धातु से कर्म में यक् करते हुये पुनः वर्तमानकाल की विवक्षा होने पर "शानच' प्रत्यय करने पर दृश्यमान बनता है, दूसरी बातयह है कि वर्तमान कालके नहीं मानने पर प्रत्यक्ष प्रमारण के असम्भव होजानेका प्रसग होगा क्योकि वतमान कालान पदाथाको इन्द्रिय, प्रनिन्द्रिय-जन्य जानते हैं, प्रत्यक्ष को मूल मान कर अनुमान आदि प्रमाण प्रवर्तते हैं अतः प्रत्यक्ष प्रमाण का असम्भव होजानेसे अनुमान आदि प्रमारणोंकी योजना नहीं हासकती है, ऐसी दशामें सम्पूर्ण प्रमाणोंका अपलाप होजानेसे सर्व पदार्थों के शून्यपनका प्रसंग प्रावेगा जो कि किसीको भी इष्ट नहीं है, अतः वर्तमान कालका मानना अत्यावश्यक है। जो पण्डिज यों कह देते हैं कि 'वर्तमानाभावः पततः पतित पतितव्य कालोपपत्ते: अर्थात्-वर्तमानकाल कोई नहीं हैं क्योंकि वृक्ष से पतन कर रहे फल का कुछ देश तो पतित होकर भूतकाल के गर्भ में चला गया है और कुछ नीचे पड़ने योग्य देश भविष्य काल में प्राने वाला है पतित और भविष्य पतितव्य काल ही हैं। उन पण्डितों की यह तक निस्सार है जब कि फल का वर्तमान काल में पतनहोरहा प्रत्यक्ष सिद्ध है, वतमान को मध्यवर्ती मान कर ही भूत, भविष्य काल माने जा सकते हैं, अन्यथा नहीं।