Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम - अध्याय
१६५
वर्तनाहि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां तत्सत्तायाश्च साधारण्याः सूर्यग· यादी नां स्वकार्यविशेषानुमितस्वभावानां वाहरगकारण पेिक्षा कार्यत्वात्तदुलपाकवत् । यत्तावद्बहिरंग
कारणं स कालः ।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों की तथा उन में साधारण रूप से पायी जा रही उनकी सत्ता की एवं अपने अपने कार्यं विशेषों से अनुमित हो रहे स्वभावोंको धारने वाले सूर्य गमन ऋतु प्रभाव आदि की वर्तना ( पक्ष ) अवश्य वहिरंग कारणों की अपेक्षा रखती है ( साध्य ) कार्य होने से हेतु ) चावलों के पाक समान (अन्वय दृष्टान्त ) । जो उस वर्तना का वहिरंग कारण होगा वह तो काल द्रव्य ही होसकता है अर्थात - चावलों के पकने में जैसे वहिरंग कारण अग्नि है उसी प्रकार जीव आदि द्रव्यों की वर्तना कराने में और उनकी सत्ताके वर्ताने में अथवा सूर्यगति, वर्षा होना, ऋतुकार्य आदि के वर्ताने में वहिरंग कारण काल द्रव्य है ।
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कालवर्तनयां व्यभिचारः स्ध्यं वर्तमानेषु वालाणषु तदभावात । न हि कालाशत्रः स्वसत्तानुभूतौ प्रयोजक मपर मपेक्षत पर्व प्रयोजकस्वभावस्व प्रयोजकत्वाभावे सर्वप्रयोजकस्वभावत्वविरोधात् । खस्य स्वावगाह हेतुत्वाभावे सर्वागाह हेतुत्वस्वभावत्व विरोधवत् । सर्वज्ञविज्ञानस्य स्वरूपपरिच्छेदकत्वाभावे सर्वज्ञत्व विरोधद्वा । दिशः स्वस्मिन् पूर्वापरादिप्रत्यय हेतुभावे सर्वत्र पूर्वापरादिप्रत्ययहेतुत्व विरोधवद्वेति केचित् ।
यहाँ कोई पण्डित प्रश्न उठाते हैं, कि उक्त कार्यत्व हेतु का काल द्रव्यकी वर्तना करके व्यभिचार आता है क्योंकि स्वयं अपने श्राप वर्तना कर रहे कालारपुत्रों में उस वहिरंग कारण की अपेक्षा स्वरूप साध्य का अभाव है। देखिये कालायें अपनी सत्ता का अनुभव करना स्वरूप वर्तना में किसी दूसरे प्रयोजक हेतु की अपेक्षा नहीं करती हैं। क्योंकि उन कालारपुत्रों का स्वभाव सम्पूर्ण द्रव्यों की वर्तन करने में प्रयोजकपना है. यदि वे कालारणुयें स्वयं अपनी ही वर्तना करने में प्रयोजक नहीं मानीं जावेंगी तो उनके सर्वप्रयोजक स्वभाव होने का विरोध प्रजावेगा, जैसे कि आकाश को अपने स्वयं श्रवगाह का हेतुपना नहीं मानने पर सम्पूर्ण द्रव्यों के श्रवगाह देने के हेतुपन स्वभाव होने का विरोध होजाता है। सबको प्रवगाह वही दे सकता है जो स्वको भी अवगाह देता है । सब में स्व सब से पहिले श्राता है। इसी प्रकार काल द्रव्य स्वयं अपनी वर्तना करने में प्रयोजक हेतु होगा तभी सबका वर्तयिता होसकता है ।
प्रथवा दूसरा दृष्टान्त यह है कि सर्वज्ञ का विज्ञान यदि अपने निजरूप का परिच्छेदक नहीं माना जायगा तो उसके सबको जान लेने स्वभावका विरोध होजायगा सर्वज्ञ का विज्ञान स्वको जानता हुआ ही सर्व का ज्ञाता बन सकता है । अथवा तीसरा दृष्टान्त यों समझिये कि दिशा को अपने में पूर्व पश्चिम, आदि ज्ञानों का हेतुपना नहीं मानने पर सम्पूर्ण पदार्थों में पूर्व, पश्चिम, ज्ञान करने के हेतुपन का जैसे विरोध होजाता है। यानी दिशायें स्व में पूर्व पश्चिम, आदि का व्यवहार कराती हुई ही मूर्त द्रव्यों में पूर्ण आदि व्यवहार को कराती हैं, अन्यथा अनवस्था होजायगी । भावार्थ - श्राकाश स्वयं अपना अवगाहक है ज्ञान स्वयं अपना परिच्छेदक है । दिशा स्वयं पने को पूर्व आदि व्यवस्था करा