Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
१६६
श्लोक - वार्तिक
देती है । इसी प्रकार काल द्रव्य की वर्तना स्वयं होरही है, ऐसी दशा में हेतु के रहजाने पर साध्य के नहीं रहते सन्ते काल वर्तना करके व्यभिचार हुना, यों कोई पण्डित कह रहे हैं ।
कालवर्तनाया अनुपचरितरूपेणासद्भावात् यस्यासावन्येन वर्त्यते तस्या सा मुख्य वर्तना कर्मसाधनत्वात्तस्याः । कालस्य तु नान्येन वर्त्यते तस्य स्वयं स्वसत्तावृत्तिहेतुत्वाद यथा नवस्थाप्रसंगात् ततः कालस्य वतो वृत्तिरेवोदचारतो वर्तना वृत्ति को वर्तनानुपपत्तेः ।
गाभावान्मुरूप
अब प्राचार्य उत्तर कहते हैं कि मुख्यरूप से काल वर्तना का बर्तना अन्य द्रव्य करके वर्तायी जाती है, उसकी वह मुख्य वर्तना है। वर्तना को साधा गया है । कालद्रव्य की वर्तना तो अन्य द्रव्य करके नहीं वर्त्तायी जाती है। कारण कि
सद्भाव है । जिस द्रव्य की वह क्योंकि कर्म में निरुक्ति कर उस
वर्त्ताने में भी अन्य वर्तयिता काल की स्वयं अपने आप से विभाग का प्रभाव होजाने
वह काल स्वयं अपनी सत्ताकी वृत्ति का कारण है । अन्यथा यानी काल के द्रव्य की अपेक्षा होगी तो अनवस्था दोष का प्रसंग श्रावेगा तिस कारण वृत्ति होजाना ही उपचार से वर्तना मानी गयी है क्योंकि वृत्ति और वर्तकके से काल के मुख्य वर्तना की सिद्धि नहीं होपाती है ।
अर्थात् — दूसरे मनुष्य करके माल खरीदने पर तो विक्रेता के यहां बेचने का व्यवहार मुख्य समझा जाता है । स्वयं खरीद लेने से विक्रय व्यवहार नहीं मानाजाता है, उसी प्रकार जहाँ भिन्न द्रव्य प्रयोजक हेतु है । उन जीब आदि पांच द्रव्यों की वर्तना तो मुख्य है, और स्वयं हेतु होजाने से कालकी वर्तना केवल उपचरित है । अत: उपचरित यानी प्रसद्भूत पदार्थ करके हेतु का व्यभिचार दोष नहीं हुआ करता है, एक द्रव्य वर्तने योग्य होता और दूसरा द्रव्य वर्ताने का कारक वर्तक होता तब तो मुख्य वर्तन होसकती थी, अन्यथा नहीं ।
शक्तिभेदात्तयोर्विभागे तु सा कालस्य यथा मुख्या तथा च वहिरंगनिमित्तापेक्षात्वं वर्तकशक्तेर्वहिरंगकारणत्वात् ततो न तया व्यभिचारः ।
यदि वह पण्डितों कहै कि जैसे ज्ञान में वेद्य और वेदक दोनों शक्तियां विद्यमान हैं। प्रदीप में स्व- प्रकाशत्व और पर - प्रकाशत्व दोनों शक्तियां हैं, इसी प्रकार काल द्रव्य में वर्त्यत्व और वर्तकत्व भिन्न भिन्न शक्तियां हैं । शक्तियों के भेदसे उन वृत्ति और वर्तक पदार्थों का विभाग होजायगा यों कहने पर तो आचार्य कहते हैं, कि ठीक है यों तो जिस प्रकार वह काल की वर्तना मुख्य सध जाती है उस ही प्रकार वहिरंग निमित्तों की अपेक्षा होना साध्य भी घटित होजाता है । क्योंकि काल की कथंचित् भिन्न मान ली गयी चर्तकत्व शक्ति यहां काल के वर्त्ताने में वहिरंग कारण पड़ गयी है, तिस कारण उस कालवर्त्तना करके व्यभिचार दोष नहीं हुआ कालवर्तना में हेतु रह गया तो क्या हुआ साध्य भी तो साथ ही साथ ठहर गया है। ऐसी दशा में व्यभिचार दोष नहीं प्राता है ।
कालवृत्तित्वे सति कार्यत्वादिति सविशेषणो वा हेतुः सामर्थ्यादवसीयते । यथा पृथिव्यादयः स्वतोर्थान्तरभृतज्ञानवेद्याः प्रमेयत्वादित्युक्तेप्यज्ञानन्वे सतीति गम्यते, अन्यथा ज्ञानेन स्वयं वेद्यमानेन व्यभिचारप्रसंगात् ।