Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक- वार्तिक
आहार वर्गणा से श्रदारिक, वैक्रियिक, और आहारक, शरीर बन जाते हैं । तेजोवर्गणा से तैजस और कार्मणवर्ग से कर्म शरीर बने हुए हैं । वचन दो प्रकार का है, एक द्रव्य वचन दूसरा भाववचन तिनमें भाव वचन आत्मा का प्रयत्न विशेष है । अतः यहां पौद्गलिक पदार्थोंमें उन दो वाणिओ में से पुद्गलसे उपादेय होरहे द्रव्य वचन काही ग्रहण किया जाता है, भाषावगंगा ही तो वचन रूप परिणन जाती है । मन भी द्रव्य और भाव इन भेदों से दो प्रकार का है, उन दो में यहाँ पुद्गल - निर्मित द्रव्य मन का ग्रहण करना चाहिये । गुण दोष विचार आदि स्वरूप भाव मन तो आत्मा की पर्याय है, अतः यहाँ पुद्गल - निर्मित पदार्थों में भावमन का ग्रहरण नहीं है ।
कहे जायंगे वहां भाव वचनों को बनाने वाला इसमें पौद्गलिक प्रगो
अर्थात् - अगले सूत्र में पुद्गल के निमित्तसे जीव के होने वाले भाव वाक् या भाव मनका उपसंख्यान किया जा सकता है। क्योंकि भाव वाक् तो आत्मा का विशेष विशेष शरीर स्थानों में ज्ञान पूर्वक प्रयत्न विशेष करना है पांग प्रकृति और देशघाति प्रकृतियों का उदय निमित्त रूप से अपेक्षणीय है । तथा छद्मस्थों के पाये जारहे लब्धि और उपयोग स्वरूप मनमें भी पौद्गलिक देशघाति प्रकृतियोंका उदय या अवलम्वन भूत पुदगलकी अपेक्षा है, भाव वाक् या भावमनमें पुद्गल उपादान कारण नहीं है. इसी कारण श्रीविद्यानन्द प्राचार्य ने राजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि की नययोजनासे निराला निर्णय कराया है। पुद्गल को भाव वाक् या भावमन का उपादान कारण तो वे भी नहीं मानते हैं प्राण, अपान तो श्वास, उच्छ्वा रूप हैं । जो कि प्रहार वर्गगा से बन जाते हैं " ग्रहारवग्गणादो तिणि सरीराणि होंति उस्सासो । रिणस्सासो विय तेजो वग्गणखंधादु तेजंगं ॥ भासमरण वग्गणादो कमेण भासामणं च कम्मादो अविकम्मदव्वं होदित्ति जिणेहि रिदिट्ठ " ( जीवकाण्ड गोम्मटसार ) । वे सब दार्शनिकों के यहां प्रसिद्ध होरहे ये शरीर, वचन, मन, प्रारण, और पान तो शरीर आदि के उपयोगी हो रहीं प्रतीन्द्रिय प्राहार वर्गणा आदिकों के उपकार स्वरूप कार्य हैं । जो कि कार्य-लिंग हो रहे सन्ते अतीन्द्रिय वर्गणाओं का अनुमान करा देते हैं । जैसे कि अग्नि का कार्य होरहा धूम प्रोटमें धरी हुई प्रागका ज्ञापक लिंग होकर श्रनुमान ज्ञान करा देता है । अर्थात् दृश्यमान शरीर आदि कार्यों से कारण होरहीं प्रतीन्द्रिय वर्गराम्रों का अनुमान कर लियाजाता है, इसी बात का ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम वार्तिक द्वारा आवेदन करे देते हैं ।
शरीर वर्गणादीनां पुद्गलानां स संमतः ।
शरीरादय इत्येतैस्तेषामनुमितिर्भवेत् ॥ १ ॥
ये शरीर, वचन, आदिक तो शरीरोपयोगी सूक्ष्म प्रहार वर्गणा आदिक पुद्गलों के वह उपकार हैं यों अच्छे प्रकार मान लिया गया है, इस कारण इन उपकार यानी कार्यों करके उन कारण भूत पौद्गलिक वर्गणाओं का अनुमान ज्ञान होजावेगा जैसे कि गत्युपग्रह से धर्म का स्थित्यु ग्रह से अधर्म द्रव्य का और अवगाहक जीवादिकों के सकृत् प्रवगाह से अवगाह्य आकाश का अनुमान किया जा चुका है। संति शरीरवाङ्मनोवर्गणाः प्राणापानारंभकाश्च सूक्ष्माः पुद्गलाः शरीरादिकार्यान्यथानुपपत्तेः न प्रधानं कारणं शरीरादीनां मूर्तिमच्चाभावादात्मः त् । न ह्यमूर्तिमतः परिणामः कारणं दृष्टं ।