Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
जगत् में शरीरोपयोगी आहार वर्गणा, तेजोवर्गणा, कार्मणवर्गणायें और वचनोपयोगी भाषा वर्गणायें तथा मन को बनाने वाली मनोवगरणायें एवं प्राण और अपान को बना रही आहार वगरणायें ये सूक्ष्म पुद्गल विद्यमान हैं (प्रतिज्ञा ) क्योंकि शरीर, वचन, ग्रादि कार्य अन्यथा यानी सूक्ष्म पूदगलों के विना बन नहीं पकते हैं ( हेतु )। इस अनुमान में पड़ा हुआ हेतु अपने साध्य को साध देता है। शरीर, वचन. आदिकों का कारण वह सांख्यों के यहां मानी गयो प्रकृति तो नहीं है (प्रतिज्ञा) क्योंकि सत्वगुण, रजोगुण तमोगुणों की साम्य-अवस्था स्वरूप अतीन्द्रिय अव्यक्त प्रकृति को मूत्तिसहित पन का अभाव है ( हेतु ) आत्मा के समान (दृष्टान्त) । नहीं मूर्तिमान् यानी अमूर्त पदार्थ का परिणाम भला मूर्तिमान् पदार्थों का कारण होरहा नहीं देखा गया है । अमूर्त आत्मा जैसे शरीर आदि मूर्त कार्यों का उपादान कारण नहीं है. उसी प्रकार प्रमूर्ति प्रधान के परिणाम शरीर प्रादिक नहीं होसकते हैं ।
__पृथिव्यादिपरमार वः कारणमिति केचित्, तेषां सर्वेप्यविशेषेण पृथि पादिपरमाणवः रारीराधारंभकाः स्युः प्रतिनियतस्वभावा वा ? न तावदादि विकल्पोऽनिष्टप्रसंगात् । द्वितीयकल्पनायां तु शरीरादिवर्गणा एव नामांतरेणोक्ता भवेयुरिति सिद्धोऽस्मत्सिद्धान्तः ।
__वैशेषिक कहते हैं कि पृथिवो, जल, आदि के परमाणुयें ही शरीर आदिकों के कारण हैं । अर्थात्-मनुष्य, तिथंच, सर्प, कीट, वृक्ष, आदि के शरीर तो पृथिवी परमाणुषों से बन जाते हैं, और वरुण लोक में रहने वाले जीवों के शरीर जल परमाणुषों से निष्पन्न हाजाते हैं । सूर्य लोक आदि में पाये जारहे तैजस शरीर तो तेजः परमाणुओं से उपजते हैं, पिशाच आदिकों के वायवीय शरीर वायु परमाणुओं करके किये जाते हैं शब्द का समवायी कारण आकाश है, मनोद्रव्य किसी से भी नहीं उत्पन्न होरहे नित्य हैं। प्राण और अपान नामके विषय तो वायु परमाणुओं से उपज जाते हैं। इस प्रकार कोई पण्डित कह रहे हैं । इस पर ग्रन्थकार पूछते हैं कि उन वैशेषिकों के यहां क्या सभो पृथिवी आदि परमाणुये विशेषता-रहित होकरके शरीर आदि को बनाने वाली होगी ? अथवा क्या प्रतिनियत
वाली परमाणुयें इन शरीर आदिको बनावेंगी? बतायो, पहिला विकल्प तो ठीक नहीं पड़ेगा क्योंकि वैशेषिकों के यहां अनिष्ट का प्रसंग होजायगा।
अर्थात–वैशेषिक यदि चाहें जिस जाति की परमाणुषों से चाहे जिस कार्य का बन जाना मान लेंगे तब तो जलीय परमाणुओं से तैजस शरीर या पार्थिव परमाणुओं से वायवीय शरीर बन जायगा और ऐसी दशा में पृथिवी, जल, तेज, वाय, परमाणों की चार जातियों का कारण रूप से समर्थन करना विरुद्ध पडेगा,एक ही पुद्गल तत्व मान कर कार्य-निर्वाह होसकता है। हां दूसरी कल्पना करने पर तो वैशेषिको द्वारा दूसरे दूसरे नामों करके वे हमारी अभीष्ट होरहीं शरीर आदि वर्गणायेंही कह दी गयीं हुई समझी जायगी, इस प्रकार हम जैनों का सिद्धान्त ही प्रसिद्ध हुआ। प्रलं विस्तरेण ।
सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज के प्रति किसीका प्रश्न है कि क्या इतना ही पुद्गलों करके किया गया उपकार हैं ? अथवा क्या अन्य भी पुद्गलों करके जीवों लिये उपयोगी उपकार किया जाता है ? ऐसी जिज्ञसा होने पर सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज अगले सूत्र को कहते हैं।
सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च॥२०॥