Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
पंचम - अध्याय
१४६
प्रतिनियतमवगाह्यं सिद्धं तथा सकृत्सर्वात्रग हिनामवगाह्यमाकाशमनुमन्तव्यम् ।
जाड़े की ऋतु में वायु चलते समय घाम में बैठ जाते हैं । उस अवसर पर शीतता, वायु, धाम, धूल, आदि पदार्थों की उसी प्रभिन्न देश और उसी अभिन्न काल में वृत्ति बन करके प्रतीति हो रही है, इस कारण अपने में ही श्रवगाह्यपन और स्वयं में ही अवगाहकपन की सिद्धि होजाती है । यदि शैत्य वायु, घाम, आदिक का परस्पर में एक दूसरे को अवगाह देना बन रहा नहीं माना जायगा तब तो उन शीत आदि के न्यारे न्यारे देशों में वृत्ति होने का प्रसंग आवेगा जैसे कि दोनों डेल परस्पर में अवगाह नहीं देते हुये अपने अपने न्यारे न्यारे देशों में वर्त रहे हैं । तिस कारण सिद्ध होता है, कि समीचीन प्रतीति का उल्लंघन नहीं कर जिस प्रकार प्रतिनियत हो रहे विशेष विशेष प्रवगाहकों के प्रतिनियत हो रहे श्रवगाह्य पदार्थ सिद्ध हैं । उसी प्रकार युगपत् सम्पूर्ण श्रवगाह करने वाले जीव आदि पदार्थोंका श्रवगाह करने योग्य प्रकाश द्रव्य है । यह युक्तिपूर्वक मान लेना चाहिये ।
अर्थात् - मत्स्य का अवगाह्य जल है, भीत में कील घुस जाती है. प्रधेरे में मनुष्य छिप जाता है । इत्यादिक रूप से विशेष २ मछली आदि श्रवगाहकों के विशेष जल प्रादि श्रवगाह्य पदार्थ तो प्रसिद्ध ही हैं, इसी प्रकार एक ही बार में सम्पूर्ण अर्थों का अवगाह करने योग्य प्रकाश पदार्थ स्वीकार करलेना चाहिये ।
ܢ
सूत्रकार महाराज के प्रति किसी का प्रश्न है कि प्राकाश का उपकार आपने अवगाह देना कहा सो परिज्ञात कर लिया अब यह बताओ कि आदि सूत्रमें उस प्रकाश ने अनन्नर कहे गये पुद्गलों का उपकार क्या है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
शरीर वाङ मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १६ ॥
दारिक आदि शरीर, वचन, मन, प्राण, अपान ये पुद्गलों के उपकार हैं । अर्थात् - जीवों के उपयोग में श्रारहे पाँचों शरीर तो आहार आदि वर्गणाओं से बन रहे सन्ते पुद्गलरूप उपादान कारणों के उपादेय हैं, वचन भी पुद्गलों के बनाये हुये हैं । हृदय में आठ पांखुरी वाले कमल समान बन रहा द्रव्य मन भी मनोवगंगा नामक पुद्गलों से निर्मित है । उदर कोठे से बाहर निकल रही वायु उच्छवास नामक प्रारण और बाहर की भीतर खींची जा रही वायु निःश्वास स्वरूप प्रपान भी पुद्गलों से सम्पादित है । अतः संसारी जीवों के प्रति इन शरीर आदिकों का सम्पादन कर देना पुद्गलों का उपकार है, स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ और वहिर्भूत भोग्य, उपभोग्य विषय भी पुद्ग लोंके उपकार ( कार्य ) हैं । उपकार इत्यनुवर्तनीयं, तत्र शरीर मौदारिकादि व्याख्यातं । वाक् द्विधा- द्रव्यशक् भाववाक च । तत्रेह द्रव्यवाक् पौद्गलिकी गृह्यते । मनोपि द्विविधं द्रव्यभावविकल्पात् । तत्रेह द्रव्यमन: पौद्गलिकं ग्राह्यं, प्राणापानौ श्वासोच्छ्वासौ । त एते पुद्गलानां शरीरवर्गणादीनामन्द्रियाणामुपकारः कार्यमनुमापकमित्यावेदयति ।
सत्रहवें सूत्र से " उपकार " यह पद यहां अनुवृत्ति कर लेने योग्य है । उन सूत्रोक्त शरीर आदिकों में उत्तरवर्ती वाक श्रादिकों का अधिष्ठान होरहा आदि में कहागया शरीर तो यहां प्रौदारिक आदि लेना चाहिये प्रौदारिक, वैक्रियिक, आदि शरीरोंका हम व्याख्यान कर चुके हैं । पौद्गलिक