Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
सुखं तच्चेत्सद्वेद्यस्य कर्मणः कार्य, दुःखमसद्वेद्यस्य, जीवितमायुषः, मरणमसद्वद्यस्यायुःक्षये सति तदुदयात्परमदुःखात्मना तस्यानुभवात् । ततः सातवेद्यादिकर्मात्मनः पुद्गलाः सुखाद्य पाहेभ्योऽनुमीयंते । अत्रोपग्रहवचन सद्वद्यादिकर्मणां सुखाद्युत्पत्ती निमित्तमात्रत्वेनानुग्राहकत्वप्रतिपत्यथं परिणामकारणं जीवः सुखादीनां तस्यैव तथापरिणामात् अत एव जीवविपाकित्वं सद्ववेद्यादिकर्मणां जीवे तद्विपाकोपलब्धेः ।
पुद्गल कृत उपकारों में वह सुख तो सातावेदनीय कर्म का कार्य है असाता वेदनीय कर्मका कार्य दुःख है, आयुष्य कर्मका कार्य जीवित रहना है. असाता वेदनीयका ही कार्य मरण है क्योंकि भुज्यमान आयु कर्म के निषेकों का क्षय होने के अवसर पर विशिष्ट जाति के उस असातावेदनोय कर्म का उदय होजानेसे परम दुःखस्वरूप करके उस मृत्युका अनुभव होता है तिस कारण सिद्ध हुप्राकि सातावेदनीय आदि कमस्वरूप होरहे पुद्गल तो जीव के इन सुखादि अनुग्रहों करके अनुमान कर लिये जाते हैं। इस सूत्र में उपग्रह शब्द की अनुवृत्ति या अाकर्षण होसकता था फिर भी सूत्रकार ने यहाँ उपग्रह शब्द कहा है उसका प्रयोजन यह प्रतिपत्ति करा देना है कि जीवके सुखादि की उत्पत्ति करने में साता. वेदनीय आदि कर्म केवल निमित्त होकरके अनुग्राहक हैं शरीर आदि के उपादान कारण जैसे पुद्गल हैं, उस प्रकार सुखादि के उपादान कारण पुद्गल नहीं हैं सुखादि परिणामों का उपादान कारण जीव है क्योंकि उस जीवकी ही तिस प्रकार सुख प्रादि रूप करके परिणति होती है इसी ही कारण सातावे. दनीय प्रादि कर्मों को जीव--विपाकी प्रकृति कहा गया है "अद्वत्तरि अवसेसा जीवविवाई मुणेयध्वा" क्योंकि जीव में उन सातावेदनीय आदि कर्मों का विपाक होरहा देखा जाता है।
नन्यायुः भवविपाकि श्र यते तत्कथ जीवविपाकि स्यात् ? भवस्य जीवपरिणामस्वविवक्षायां तथा विधानाददोषः । तस्य कथंचिदजीवपरिणामविशेषत्वे वा जीवपरिणाममात्राझैदविवक्षायामायुभवविपाकि प्राक्तमिति न विरोधः ।
यहां किसीका प्रश्न है कि शास्त्रोंमें आयुष्य कर्मको भवविपाकी सुना जारहा है "पाऊरिण भव विवाई खेत्तत्रिवाई य प्राणुपूव्वीपो ,, चारों आयुओं का देव मनुष्य तिर्यच, नरक इन भवों में विपाक होता है तो फिर आपने अायु को जीव-विपाकी प्रकृति किस प्रकार कह दियाहै ? नहीं कहना चाहिये था,इसका उत्तर ग्रन्थकार यों देते हैं कि चारगतियोंमें अनेक भव ग्रहण करना जीवोंका ही विभाव परि. णाम है, अतः भव को जीव का परिणाम होनेकी विवक्षा होने पर तिस प्रकार भेद गणना कोई दोष नहीं आता है,अर्थात्-जीव-विपाकी प्रकृतियोंमें ही भव-विपाकी आयुष्य प्रकृति गिनली जाती है। ऐसी दशा में जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, क्षेत्र-विपाकी यो सम्पूर्ण कर्मों के तीन ही भेद या क्षेत्र विपाकी प्रानुपुर्व्य को भी जीव-विपाकीमें गिनलेने पर जीव-विपाकी और पुद्गलविपाकी यों कर्मों के दो ही प्रकार कहदिये जाते हैं । हाँ यदि उस भव को कथंचित् अजीव की पर्याय-विशेष माना जायगा तब तो जीव के यावत परिणामों से भेद की विवक्षा करने पर आयु को शास्त्रों में अच्छे ढंग करके भवविपाकी कहा जा चुका है । इस प्रकार आयु को जोवविपाकी या भवविपाकी कह देने से कोई पूर्वा. पर विरोध नहीं आता है " अपितानर्पितसिद्धेः।
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