Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
प्रीति या प्रसन्नता स्वरूप ऐन्द्रियिक सुख, संक्लेश या परिताप स्वरूप दुःख, प्राण अपान स्वरूप क्रियाविशेष का विच्छेद नहीं होना--स्वरूप जीवित, और प्राण अपान क्रियाओं का उच्छेद स्वरूप मरण ये अनुग्रह भी जीव के पुद्गल करके किये गये उपकार हैं। उपग्रह शब्द के प्रकरणप्राप्त होने पर भी पुनः सूत्रकार करके कहा गया उपग्रह शब्द तो पुद्गल का पुद्गल के ऊपर उपकार करना ध्वनित करता है। च शब्द करके अन्य भी पुद्गल--निष्ठ निमित्त कारण निरूपित कार्यता वाले हास्य, रति वेद, उच्चाचरण, नीचाचरण,भोग, उपभोग, आदिका समुच्चय होजाता है । अर्थात् विस्मृति करादेना, अज्ञान भाव रखना, आदि भी पुद्गल--जन्य उपकार हैं । यदि घोर अपमान या इष्ट वियोग-जन्य दुःख आदि का स्मरण बना रहे तो ये मोही मनुष्य विना मृत्युकालके बीच में ही अपमृत्यु को प्राप्त होजाय, ऐसी अवस्था में विस्मृति मैया उसकी रक्षा कर लेती है, तत्वज्ञान के अनुपयोगी दुरूह, कषाय-वर्द्धक ज्ञयोंका, अज्ञान बना रहना ही विशेष लाभप्रद नहीं तो रही पदार्थोंके ज्ञान उन आवश्यक भेदविज्ञानों के स्थानों को प्रथम से ही उसी प्रकार घेर लेंगे जैसे कि घर में व्यर्थका कूड़ा, कचड़ा, अनावश्यक पड़ा हुआ स्वास्थ्य को विनाश रहा सन्ता पुनः आवश्यक पदार्थों को स्थान नहीं देने देता है, मानसिक या शारीरिक कार्य करने वालों के निकट स्थान में सोरहा या आलस्य में बैठाहुआ मनुष्य उनके कार्यों में विघ्न डालता रहता है, व्यर्थके संकल्प विकल्प, या अनावश्क ज्ञान तो इससे भी कहीं अत्यधिक भारी क्षति को करते रहते हैं। इन ठलुपा ज्ञान या अर्थसकल्पों से पर-जन्म ही नहीं बिगड़ रह साथ में प्रतिक्षण शारीरिक, मानसिक, प्रार्थिक क्षतियां भी अपरिमित उठाई जा रही हैं, अतः मरण के समान ये भी पुद्गलकृत उपकार सम्भव जाते हैं ।
पुद्गलानामुपकार इत्यभिसंबंधः केषां पुनः पुद्गलाना ममे कार्यमित्याह ?
पूर्व सूत्रोंसे पुद्गलानां, और 'उपकारः, इन दो पदोंकी अनुवृत्ति कर सूत्रके पहिली और पिछली मोर सम्बन्ध करलेना । तब अर्थ इस प्रकार होजायगा कि पुद्गलोंके यों सुख, दुख,जीवित और मर ये अनुग्रह भी उपकार हैं । काई जिज्ञासु यह पूछ ।। है कि किन किन पुद्गलों के फिर ये सुख आदिक कार्य हैं ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार इस अगली वातिक को कहते हैं।
सुखाद्युपग्रहाश्चोपकारो जीवविपाकिनाम्।
सातवेद्यादिकर्मात्मपुद्गलानामितोनुमा॥१॥ जीव में विपाक को करने वाली सातावेदनीय, असातावेदनीय आदि कर्मस्वरूप पुद्गलों का उपकार जीव के लिये सुख प्रादि अनुग्रह करना है, इन सुख प्रादि उपग्रहों से उन कारणभूत प्रतीन्द्रिय पुद्गलों का अनुमान कर लिया जाता है । अर्थात्-जीव के सुख आदि होना पुद्गल को निमित्त पाकर हये अनुग्रह हैं, मरण भी एक अनुग्रह है धार्मिक दृष्टि से वैराग्य को प्राप्त होरहे पुरुष को समाधिमर र प्रिय है व्याधि, पीडा, शोक, आदि से आत्त होरहे पुरुष को मरण प्यारा लगता है और न भी प्यारा लगे तो हमें क्या । पुद्गलोसे जो प्रिय या अप्रिय कार्य बनाये जाते हैं उन नैमित्तिकोंका यहाँ निरूपण करदिया गया है नैतिक दृष्टि अनुसार अनेक मनुष्य यों कहदेते हैं कि यदि मनुष्य या तिर्यंच मरें नहीं तो सौ, दो सौ वर्ष में स्थान या खाद्य की प्राप्ति अशक्य होजाय मरना तो नवीनताका एक पूर्व रूप है इत्यादि । यों मरण स्वरूप उपकारको विवेचना करलीजाय ।