Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
लेना प्रमाणज्ञान का कार्य है । जीव राशिसे अनन्तगुणी पुद्गल राशि है, पुद्गलों से अनन्त-गुणी काल समयों की राशि है। भूत, भविष्यत काल के समयों से अनन्तानन्तगुणे श्रेणीरूप अलोकाकाश के प्रदेश हैं, इनके घन प्रमाण सम्पूर्ण आकाश के अनन्तानन्त प्रदेश हैं। यों परि पास किया जा सकता है, कोई पोल नहीं है । हाँ जिसका अन्त नहीं वह अनन्त है, यह केवल अनन्त शब्द की निरुक्ति की जा सकती है। प्रकृत्यर्थ नहीं करना चाहिये।
प्रदेशा इत्यनुवर्तते । पूर्वसूत्रे वृत्त्यकरणातत्र वृत्तिनिर्देशे हि प्रदेशानामसंख्येयशब्दोपाधीनां व्यवस्थानात्केवलानामिहानुवृत्तिर्न स्यात्, तत एवासंख्येयप्रदेशा इति वृत्तिनिर्देशे लाघवेपि वाक्यनिर्देशोऽसंख्येयाः इति कृत इहोत्तरसूत्रेषु च प्रदेशग्रहणं मा भूद्यतो गौरवमिति ।
पूर्व सूत्र से “ प्रदेशाः " इस पद की अनुवृत्ति कर ली जाती है, तिस ही कारण से पहिले सूत्र में प्रदेश शब्द की असंख्येय शब्द के साथ कर्मधारयवृत्ति नहीं की गयी है। यदि वहां कर्मधारय समास वृत्ति अनुसार निर्देश कर दिया जाता तो " असंख्येय-प्रदेशाः " पद बन जाता " विशेषण विशेष्येण बहुलं" के अनुसार असंख्येय शब्द को विशेषण रखने वाले विशेष्यभूत प्रदेशों की व्यवस्था होजाने से केवल प्रदेशों को यहाँ अनुवत्ति नहीं होसकेगी " एकयोग--निर्दिष्टानां सह वा निवृत्तिः सह वा प्रवृत्तिः " या तो असंख्येय और प्रदेश दोनों शब्दों को अनुवृत्ति होती या एक की भी नहीं होपाती। तिस ही कारण से यद्यपि समास करने पर " असंख्येय--प्रदेशाः" इस प्रकार स पूर्वक कथन करने में लाघव है, फिर भी सूत्रकार ने " असंख्येयाः" यह पद न्यारा रखते हुये वाक्य का कथन किया है । यहाँ "आकाशस्यानन्ताः" इस सूत्र में और अगले दो सूत्रों में पुनः प्रदेश शब्द का ग्रहण नहीं होवे जिससे गौरव होजाता अर्थात्- गौरव दोष का परिहार करने के लिये " प्रदेशाः " शब्द को असमसित रखा है, उसकी यहाँ अनुवृत्ति कर ली जाती है।
के अंतोऽवसानमिह गृह्यते, अविद्यमानो अंतो येषां त इमेऽनताः प्रदेशा इत्यन्यपदार्थनिर्देशोयं । ते चाकाशस्येति भेदनिर्देशः कथंचित्प्रदेशप्रदेशिनो दोपपत्तेः १ सर्वथा तयोरभेदे प्रदेशिनः स्वप्रदेशादेकस्मादर्थान्तरस्वाभावात् प्रदेशमात्रत्वप्रसंग इति प्रदेशिनोऽसत्त्व। तदसत्त्वे प्रदेशस्याप्यसत्चमित्युभयासत्त्वप्रसक्तिः।
___ यहाँ सूत्र में अन्त का अर्थ अवसान ग्रहण किया जाता है, जिनप्रदेशों का अन्त विद्यमान नहीं है, वे प्रदेश, ये अनन्त हैं, इस प्रकार बहुव्रीहि समास द्वारा अन्य पदार्थ को कथन करने वाला इस सत्र में "अनन्ता:" यह निर्देश है। वे अनन्त प्रदेश प्राकाश द्रव्य के हैं, इस प्रकार षष्ठयन्त और प्रथमान्त पदों के अनुसार सूत्रकार द्वारा भेदपूर्वक कथन किया गया है, क्योंकि अंगभूत प्रदेश और अंगी होरहे प्रदेशी इनका कथंचित्-भेद होना युक्तियों से सिद्ध है। यदि सभी प्रकारों से उन प्रदेश
और प्रदेशी द्रव्यों का अभेद माना जायगा तब तो प्रदेशवाले द्रव्य को अपने एक प्रदेश से भेद नहीं होने के कारण केवल एकप्रदेशधारीपन का प्रसंग होगा, यो प्रदेशी द्रव्य का अभाव हुपा जाता है, और उस प्रदेशो का असद्भाव होजाने पर प्रदेश का भी असत्त्व होजाता है। इस प्रकार प्रदेश और