Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
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छोटा आत्मा सम्पूर्ण शरीरों में सम्विदित होता रहेगा । यदि वे पण्डित यों कहैं कि उन सम्पूर्ण शरीरों में एक ही आत्मा के माननेपर तो शीघ्र ही अन्य अन्य शरीरों में संचार होजाने से उन त्यक्तों के अचेतनपन ( मरजाने ) का प्रसंग आजायगा एक भाव के संचार से उसके अनेक प्रभावों के शीघ्र प्रागमन का काल बहुत है, अतः सम्पूर्ण शरीरों में तो एक छोटी आत्मा नहीं मानी जा सकती है, हाँ एक शरीर में अल्प-आत्मा को मानने में कोई विपत्ति नहीं दीखती है।
ग्रन्थकार कहते हैं कि यों तो एक शरीर के उस छोटी आत्मा करके छोड़े जा चुके अनेक अवयवों में भी अचेतनपन का प्रसंग पाजावेगा। हाँ उस छोटी सी प्रात्मा से युक्त होरहे ही स्वल्प शरीर के एक देश को सचेतनपना बन सकेगा, ऐसी दशा में शरीर के स्वल्पभाग को छोड़ कर अवशिष्ट सम्पूर्ण शरीर मृत बन जावेगा । शीघ्र घूमते हुये चाक पर जैसे काली बूद चारों ओर दीखजाती है, उसी प्रकार उससे अधिक देर तक काली बूद से रीता स्थान दीखता रहता है, गाड़ी के पहियों का भ्रमरण होने पर अरों से भरे हुये स्थान के समान अरों से रीता स्थान भी खूब दीखता है, ऐसी दशा में यह आत्मा का अणु-परिमाण या अंगुष्ठ-परिमाण मान लेना मनचाहा जो कुछ भी प्राग्रह पकड़ लेना मात्र है, कोई युक्त मार्ग नहीं है, प्रतीतियों का उल्लंघन नहीं करके उपात्त शरीर के परिमाण का अनुविधान करने वाले ही जीव को परिशेष में स्वीकार कर लेना आवश्यक होगा, उसी प्रकार अपने अपने शरीर परिमाण वाले ही आत्मा की सम्पूर्ण जीवों को प्रतीति होरही है।
तथा सति तस्यानित्यत्वप्रसंगः प्रदीपवदिति चेन किंचिदनिष्टं, पर्णयार्थादेशादात्मनोऽनित्यत्वसाधनात् । द्रव्यार्थादेशात्तन्नित्यत्त्ववचनात् प्रदीपवदेव। सोपि हि पुद्गलद्रव्यादेशान्नित्य एवान्यथा वस्तुत्वविरोधात् ।
प्रतिवादी कहता है कि तिसप्रकार अपने विनश्वर शरीर का अनुकरण कररहा अनुनयकारी ( खुशामदी ) आत्मा यदि शरीर के परिमाण ही घट, बढ़, जाता है तब तो उस आत्मा के अनित्यपन का प्रसंग आता है जैसे कि अपने आवारकों के परिमाण अनुसार घट रहा और बढ़ रहा प्रदीप या दीपकप्रकाश अनित्य है। प्राचार्य कहते हैं कि यह प्रसंग तो हम को कुछ भी अनिष्ट नहीं है, पर्यायाथिक नय अनुसार कथन करने से आत्मा का अनित्यपना साध दिया गया है. हाँ द्रव्यार्थिक नय अनुसार कथन करने से ही उस आत्मा के नित्यपन का " नित्यावस्थितान्यरूपाणि" इस सूत्र द्वारा निरूपण किया गया है, प्रदीप के नित्यपन समान ही । अर्थात्-जब कि वह प्रदीप भी पुद्गलद्रव्य अर्थ का कथन करने अनुसार द्रव्याथिक नयसे नित्य ही है, उसी प्रकार आत्मा भी द्रव्याथिकनय अनुसार नित्य है, अन्यथा यानी द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य यदि आत्मा या प्रदीप को नहीं माना जायगा तो इनके वस्तुपन का विरोध होजावेगा द्रव्य और पर्यायों का तदात्मक समुदाय ही वस्तु है, केवल नित्यद्रव्य या केवल पर्यायें तो खरविषारण या कच्छपरोमों के समान असत् हैं ।
जीवस्य सावयवत्वे भंगुरत्वे वावयवविशरणप्रसंगो घटवदिति चेन्न, आकाशादिदिनानेकांनात् । न ह्याकाशादि कथंचिदनित्योपि सावयवोपि प्रमाणसिद्धो न भवति । न चावयवविशरणं तस्येति प्रतीतं ।