Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक- वार्तिक
कोई व्यवहारी पुरुष कार्यकारणभाव या स्थाप्यस्थापकभाव को मान रहा आचार्य महाराज से प्रश्न करता है कि जब कारणों करके नवीन रीति से स्थिति का करना नहीं होसकता है, तब तो इस प्रकार किसी भी पदार्थ के उत्पत्ति और विनाश का करना भला किस प्रकार बन सकेगा ? क्योंकि उस उत्पत्ति स्वभाव वाले अथवा उस उत्पत्ति स्वभाव को नहीं धारने वाले पदार्थ का यदि किसी भी उत्पादक कारण करके करना होगा तो स्थिति पक्षमें कहे गये दोषों का प्रसंग आता है, तथा इसी प्रकार से उस विनाश स्वभाव वाले पदार्थ का अथवा नहीं विनाशशील पदार्थ का यदि किसी विनाशक कारण करके सम्पादन किया जायगा तो भी स्थिति पक्षमें कहे जा चुके दोषों का प्रसंग श्राता है, अर्थात् - उत्पत्ति स्वभाव वाले की उत्पादक कारण द्वारा उत्पत्ति किया जाना व्यर्थ है जैसे कि अग्निमें उष्णता को उपजाना व्यर्थ है, और स्वयं उत्पादस्वभाव को नहीं धारने वाले पदार्थ की खरविषाण के समान उत्पत्ति होने का असम्भव है तथैव नाश--शील पदार्थ का अन्य नाशक पदार्थ करके नष्ट करना व्यर्थ है जैसे कि जल के बबूले का नाश करना अपार्थक है । और खरविषाणसमान विनाशशील को नहीं धारने वाले का नाशक कारणों करके नष्ट किया जाना असम्भव है । प्राचार्य कहते हैं कि यों कहने पर तो हम यही उत्तर देंगे कि किसी भी प्रकार से वह उत्पत्ति और विनाशका करना नहीं होता है, निश्चयनय से सम्पूर्ण पदार्थोंके उत्पाद, व्यय और ध्रुवपन की स्वभाव अनुसार व्यवस्था होरही है । अर्थात् - अनादि काल से सम्पूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय, धौव्य - प्रात्मक स्वतः सिद्ध हैं, निश्चय नय अनुसार उत्पत्ति, विनाश और स्थिति होने में किसीभी कारण की अपेक्षा नहीं है, हां व्यवहार नयसे ही पदार्थों की उत्पत्ति प्रादिकों का कारणों करके सहितपना प्रतीत होरहा है, यानी व्यवहार में उत्पादक कारणों से उत्पत्ति नाशक कारणों से विनाश और अधिकररण या स्थापकों करके स्थिति होरही देखी जाती है ।
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क्षणक्षयैकान्ते तु सर्वथा तदभावः शाश्वतैकांतवत् । संवृत्या तु जन्मैव सहेतुकं, न पुनर्विनाशः स्थितिश्चेति स्वरुचिविरचितदर्शनोपदर्शननात्रं नियमहेत्वभावात् ।
बौद्धों के मन्तव्य अनुसार यदि एक क्षरण ही ठहरते हुये सम्पूर्ण पदार्थों का द्वितीय क्षरण में नाश होजाने का एकान्त प्राग्रह स्वीकार किया जायगा तब तो सभी प्रकारों से उन उत्पत्ति, विनाश, स्थितियों का प्रभाव होजायगा जैसे कि सर्वथा नित्यपन के एकान्त में उत्पाद प्रादिक नहीं बनते हैं । बौद्धों ने इस दृष्टान्त को बड़ी प्रसन्नता से इष्ट किया है, कूटस्थनित्य की उत्पत्ति और विनाश तो अलीक हैं ही। ध्रुवपना भी अपरिणामी में नहीं बन पाता है। इसी प्रकार बौद्धों के क्षणिकत्व पक्षमें किसकी उत्पत्ति होय ? कौन पूर्ववर्त्ती उपादान भला किस उपादेय स्वरूप परिणमे ? और किससे किसका विनाश होय ? कौन पूर्व - आकारों का त्याग कर उत्तर-आकारों का उपादान करे ? ध्रुवपना तो असम्भव ही है, क्योंकि ध्रवपना भी पर्याय श है, द्रव्यांश नहीं । कालान्तर--स्थायी परिणामी - पदार्थों में ही तीनों घटित होते हैं ।
बौद्ध मान बैठे हैं कि सम्वृति यानी व्यवहार से तो उत्पत्ति ही हेतुम्रों से सहित है किन्तु फिर विनाश और स्थिति कारणों वाले नहीं हैं अर्थात् उत्पत्ति के लिये कारणों की अपेक्षा है, विनाश होना तो कारणों के विना ही स्वाभाविक है, इसी प्रकार स्थिति पक्ष वाले पण्डित कारणो के