Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
उपदेश देवें कि आज ठीक मध्यान्ह या अपरान्ह के समय भूतकाल और भविष्यकाल दोनों तराजू के पलड़े समान बराबर होजांय, पश्चात् भूतकाल बढ़ता जाय और भविष्यकाल छोटा होता जाय यों द्रव्य, काल, क्षेत्रों की ठीक ठीक गिनती कर मर्यादा बांध दी गयी है ।
भाव की व्यवस्था यो समझिये कि प्रलोकाकाश के प्रदेशों से अनन्तानन्त गुणे पक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के जघन्य ज्ञान के अविभागप्रतिच्छेद हैं । द्विरूप वर्गधारा में प्रतर आकाश की संख्या को समझा कर " धम्माधम्मा गुरु लघु इगिजीवागुरुलघुस्स होंति तदो । सुहमरिणअपुण्णगाणे प्रवरे विभाग पडिछेदा" ऐसा त्रिलोकसार में कहा है। इस गणित में एक भी संख्या की न्यूनता या अधिकता नहीं है । यह नाप " वामन तोले पाव रत्ती" के न्याय अनुसार ठीक ठीक की गयी है ।
जघन्य ज्ञान के विभाग प्रतिच्छेदों से अनन्तानन्त गुणे केवलज्ञान के विभाग प्रतिच्छेद हैं, यद्यपि केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों की इकईसवीं उत्कृष्ट अनन्तानन्त नामक संख्या में भी एक दो, दस, वीस, संख्यात, असंख्यात कोई भी संख्या बढ़ायी जा सकती है। और बढ़ी हुई उस कल्पित संख्या से केवल ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद न्यून भी कहे जा सकते हैं । तथापि सच्चे गणितज्ञ की यही नीति है, कि वह ठीक ठीक संख्या वाले पदार्थों का उसी नियत संख्या अनुसार निरूपण करें । केवलज्ञान के विभाग प्रतिच्छेदों से अधिक संख्या वाला पदार्थं कोई इस चराचर जगत् में गिनने योग्य ही नहीं है । प्रत: सर्वज्ञ देव ने उत्कृष्ट अनन्तानन्त से अधिक किसी वाईसवीं संख्या का उपदेश नहीं दिया है। यों द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों की नियत संख्या या अनन्तानन्त संख्यानों पर पर्याप्त रूप से प्रकाश डाला जा चुका है ।
यहाँ किसीका यह कुतर्क नहीं चल सकता है कि अनादि और अनन्तकी भी जब मर्यादा हो चुकी तो उनका कभी न कभी अन्त ग्राही जायगा ? निर्णीत विषय यह है कि सक्षय अनन्न राशि का भले ही व्यय होते होते अन्त प्रजाय किन्तु अक्षय अनन्त राशियों में पड़े हुये जीव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य, कालसमय, आकाश प्रदेश, जघन्य ज्ञान या केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद इनका अन्त नहीं आ सकता है हाँ जीव द्रव्यों की मोक्ष होने पर या काल समयों के व्यती न होने पर व्यय होते होते न्यूनता प्रवश्य हो जायगी, क्षय नहीं होगा । व्यय सद्भावे सत्यपि नवोनवृद्धेरभाववत्वं चेत् । यस्य क्षयो न नियतः सोनन्तो जिनमते भणितः ।
आक्षेपकर्ता का लक्ष्य प्रकाश क्षेत्र या भाव पदार्थ नहीं हैं हां द्रव्य और काल में यह शंका उपस्थित की जा सकती है कि छह महीने आठ समयों में छहसौ प्राठ जोवों के मुक्त होते होते कभी न कभी संसारी जीव राशि का अन्त होजायगा और भविष्यकाल में से न्यून होते होते कदाचित् काल समय राशि का अवसान होजाय किन्तु पहिले कहा जा चुका है कि वह जीव राशि या काल राशि का अनन्तानन्त इतना बड़ा है। कि उसका कभी पूर्ण विराम नहीं होसकता है यद्यपि जीव राशि से काल समय अत्यधिक है, फिर भी वे दोनों अक्षयानन्त हैं ।
जैसे 'शून्य० का किसी भी बडी संख्या से गुणा किया जाय तीन, चार, आदि संख्या का प्राप्त करना असम्भव है । उसी प्रकार किसी गुरणाकार द्वारा शून्य से एक, दो, संख्या लाना भी असम्भव है, द्रव्यों की ठीक ठीक अन्यूनातिरिक्त गिनतो कर देने वाले सर्वज्ञ देव के वचनों पर किसी कुतर्क का अंबार नहीं हो सकता है, वे अनादि का अनादि रूप से हो ठोक ठोक जान रहे हैं और अनन्त को