Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
पंचम-अध्याय
१३९.
च क्षित्यादिहेतुकस्य दर्शनान्न धर्माधर्मनिबंधनत्वमिति चेन्न सकृद्ग्रहणात् । सकृदपि केपांचित्पदार्थानां तस्य क्षित्यादिकृतत्वसिद्धेश्च तनिमित्तत्वमित्यपि न मंतव्यं, सर्वग्रहणात् । ततः सकृसर्वपदार्थगतिस्थित्युपग्रको सर्वलोकव्यापिद्रव्योपकृतौ सकृत्सर्वपदार्थगतिस्थित्यपग्रहत्वान्यथानुपपत्तेरिति कार्य विशेषानुमेयौ धर्माधौं । न हि धर्माधर्माभ्यां विना सकृत्सर्वार्थानां गतिस्थित्युपग्रहौ संभाव्यते, यतो न तदव्यभिचरिणो स्याता
.. हेतु दलमें पड़े हुये सकृत् और सर्व इन दो पदों का कृत्य यों समझना कि यदि कोई कहे गति स्वरूप परिणत होरहे जीव और पुद्गल स्वरूप सम्पूर्ण पदार्थों के क्रम से गति उपग्रह का कारण तो पृथिवी, जल, आदि द्रव्य हैं और स्थिति परिणत होरहे सम्पूर्ण पदार्थों की क्रम क्रम से स्थिति अनुग्रह करने के हेतु तो भूमि. वृक्षच्छाया, आदि होसकते हैं, ऐसा देखा जाता है अतः गति-उपग्रहका कारण धर्मद्रव्य और स्थिति-उपग्रहका कारण अधर्मद्रव्य नहीं मानना चाहिये । ग्रन्थकार कहते हैं कि यहतो नहीं कहना क्योंकि सकृत् शब्द का ग्रहण होरहा है सम्पूर्ण पदार्थों की क्रम से गति स्थितियां भले ही पृथिवो पादिक से होजाय किन्तु प्रक्रम से गति और प्रक्रम से स्थिति तो धर्मद्रव्य करके ही होसकती है । तथा यदि फिर भी कोई यों कहै कि किन्हीं किन्हीं थोड़े से पदार्थों की वह गति और स्थितियों का किया जाना पृथिवो आदिकसे भी सिद्ध होसकता है,अतः उन गति स्थितियोंके निमित्त कारण पृथिवी आदिक बन बैठेंगे। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह भी नहीं मान बैठना चाहिये क्योंकि हेतु कोटि में सर्व का ग्रहण हारहा है सम्पूर्ण द्रव्यों को युगपत् गति या स्थिति तो पृथिवी आदिक से नहीं होसकती है, धर्म या प्रथम द्रव्य से हो होगो तिस कारण से यों अनुमान बनाया जाता है कि युगपत् होरहा सम्पूर्ण पदार्थों का यथायोग्य गति-अनुग्रह और सर्व पदार्थों का युगपत् स्थिति-अनुग्रह ये दोनों (पक्ष) सम्पूर्ण लोक में व्यापक होरहे द्रव्यों करके उपकृत हैं (साध्य) क्योंकि अक्रम करके सम्पूर्ण पदार्थों की गति और स्थिति रूप अनुग्रह होना अन्यथा यानी लोकव्यापक द्रव्यों के विना नहीं होसकता है ( हेतु ) इस प्रकार कार्य विशेषों करके धर्म और अधर्म द्रव्य अनुमान कर लेने योग्य हैं । कारण कि धर्म और अधर्म के विना युगपत् सम्पूर्ण पदार्थों के गति-उपग्रह और स्थिनि-उपग्रह सम्भवनेयोग्य नहीं हैं जिससे कि वे गति उपग्रह और स्थिति-उपग्रह होरहे उस लोक-व्यापक द्रव्यके साथ अव्यभिचारी नहीं होते । यानी उक्त हेतका अपने साध्य के साथ निर्दोष अविनाभाव है कोई व्यभिचार विरोधादि दोषों की सम्भावना नहीं है।
ताभ्यां विनैव परस्परतः संभाव्येते ताधिति चेत् किमिदानीं युगपद्गच्छता सर्वेषां तिष्ठतो हेनवः पर्वे, तिष्ठनां च सकृत्सर्वेषां गच्छं : सर्वेषां आहोस्वित् केचिदेव केषांचित ? न तावत्प्रथमः पक्षः परस्पराश्रयप्रसंगात् नापि द्वितीयः श्रेयान् सर्वार्थगतिस्थित्युपग्रहयोः सर्वलोकव्यापि द्रव्योपकृतत्वेन साध्यत्वात् प्रतिनियतार्थगतिस्थित्यनुग्रहयोः कादाचित्कयोः प्रतिविशिष्टयोः चित्यादिद्रव्योपकृतत्वाभ्युपगमात् ।