Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम अध्याय
१२७
जीवस्याविभागद्रव्यत्वादाकाशादिवत् नावयवविशरणम विभागद्रव्यमात्मा अमूर्तस्वानुभवात् । प्रसाधितं चास्यामूर्तद्रव्यत्वमिति न पुनरत्रोच्यते । तदेवं लोकाकाशमाधारः कात्स्न्येनैकदेशेन वा धर्मादीनां यथासंभवं धर्मादयः पुनराधेयास्तथाप्रतीतेर्व्यवहारनयाश्रयादिति विज्ञेयार्थानामाकाशधर्मादीनामाधाराधेयता घटोदकादीनामिव वाधकाभावात् ।
. एक बात यह भी है कि प्रविभागी द्रव्य होने से (हेतु) जीव के अवयवों का विशरण नहीं होपाता है (प्रतिज्ञा) आकाश, परमाणु, आदिके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । इस अनुमान में पड़ा हुम्रा हेतु स्वरूपासिद्ध नहीं है उस हेतु को यों सिद्ध ( पक्षवृत्ति) समझियेगा कि आत्मा (पक्ष) कालत्रय में भी विभाग को प्राप्त नहीं होने वाला द्रव्य है ( साध्य ) प्रतपन का अनुभव कर रहा होने से ( हेतु ) । इस अनुमान का हेतु भी प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि इस आत्मा का अमूर्तद्रव्यपन पहिले प्रकरणों में अच्छा साधा जा चुका है इस कारण फिर यहां अमूर्तद्रव्यपन की सिद्धि नहीं कही जाती है, अतः श्राकाशशके समान ग्रात्मा या उनके प्रदेशों का फटना, टूटना, फूटना, आदि का प्रसंग हम जैनों के ऊपर नहीं प्रापाता है ।
तिस कारण इस प्रकार सिद्ध हुआ कि धर्म, अधर्म जीव, आदि, द्रव्यों का यथासम्भव पूर्ण रूप करके अथवा एक देश करके वह लोकाकाश आधार है और धर्म ग्रादिक द्रव्य फिर श्राधेय हैं क्योंकि व्यवहार नथ का अवलम्ब लेनेसे तिसप्रकारकी प्रतीति होरही है । यों आकाश, धर्म, प्रादिक पदार्थों का आधार-आधे भाव समझ लेना चाहिये। जैसे कि घड़ा पानी का, कूड़ा दही, आदि का आधार अपना प्रसिद्ध है। लोक प्रसिद्ध होरहे आधार प्राधेयभाव में वाधक प्रमाणों का अभाव है ।
न तेषामाधाराधेयता सहभावित्वात् सव्येतर गोविषाणवदित्येतद्वाधकमिति चेन्न नित्यगुणिगुणाभ्यां व्यभिचारात् ।
यहाँ कोई पण्डित आधार प्राधेय भाव का वाधक यों अनुमान खड़ा करते हैं कि उन आकाश और धर्म आदिकों का "आधार आधेय भाव" सम्बन्ध नहीं है ( प्रतिज्ञा ) साथ साथ वर्त रहे होने ( हेतु ) गाय के डेरे श्रौर सोधे सोंगसमान ( अन्वय हटान्त), यह वाधक प्रमाण है । अर्थात्- -गाय का डेरा सींग साधे सींगपर बैठा हुआ नहीं है, और एक साथ ही होजानेके कारण सीधा सींग भी डेरे सींग पर स्थित नहीं है, इसी प्रकार अनादिकालसे आकाश और धर्म यादि द्रव्य साथ साथ विद्यमान हैं, ऐसी दशामें किसको प्राधार और किसको आधेय कहा जाय ? जब कि प्राधार पहिले वर्तता है, और प्राधेय पीछे उस पर आकर बैठ जाता है । प्राचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि नित्यगुणी और उसके नित्यगुरण करके व्यभिचार होजायगा अर्थात् श्रनादि निधन आकाश द्रव्यमें अनादि निधन परम महत्व गुण ठहर रहा है, आत्मा में द्रव्यत्व, वस्तुत्व, आदि नित्य गुरण सर्वदा से आधेय हो रहे हैं, श्रतः सहभावी पदार्थों में भी प्राधार प्राधेय भाव देखा जाने से तुम्हारा सहभावित्व हेतु व्यभिचारी वाभास है ।