Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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इलोक-वार्तिक यहां पुनःवैशेषिक आक्षेप करते हैं कि जीवका यदि अवयव-सहितपना अथवा अनित्यपना पाना जावेगा तो जीवके अवयवों का फट जाना टूटजाना, नष्ट भ्रष्ट हो-जाना रूप विशरण होजाने का प्रसंग आता है जैसे कि अवयवों से सहित होरहे भंगुर घट के अवअव टूट फूट, छिन्न भिन्न होजाते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि आकार आदि करके व्यभिचार दोष होजावेगा देखिये पर्यायाथिक नय करके आकाश आदि कथंचित् अनित्य भी और अवयवोंसे सहितभी प्रमाणों से सिद्ध न होवें यह नहीं समझ बैठना किन्तु उस अाकाश आदि के अवयवों को टूट फूट,जाना तो प्रतीत नहीं होता है अर्थात्-भिन्न भिन्न प्रान्तों में वर्त रहा आकाश सावयव है और कूटस्थनित्य भी नहीं है आकाश की पूर्व समय--वर्ती पर्याय से उत्तर समय की पर्याय न्यारी है अतः सावयव और भंगुर होते हुये भी आकाश का छिन्न भिन्न होना नहीं देखा जाता है, अतः तुम्हारा हेतु व्यभिचारी हुआ।
किंचिदात्मनोवयवा न विशर्यतेऽकारणपूर्वकन्यादाकाशा ढप्रदेश त परमाणवेकप्रदेशवद्वा । कारण पूर्वका एव हि पटादिस्कंधावयवा विशीयमारा दृष्ट तथाश्रया वेनाः यवव्यपदेशात् । अवयूयते विश्लिष्यंते इत्यवयवा इति व्युत्पत्तेः नचैत्रमात्मनः प्रदे गाः, परमाणुपरिमाणेन प्रदिश्यमानतया तेषां प्रदेशव्यादेशादाका सादिप्रदेशवत् । ततो न पिशरणं
जैन सिद्धान्त यह है कि आत्मा के कुछ भी अवयव जीर्ण शीर्ण नहीं होते हैं (प्रतिज्ञा) क्यों कि आत्माके अवयव अकारण-पूर्वक हैं जैसे कि आकाश धर्म, आदिके अनेक प्रदेश अथवा परमाणु का एक प्रदेश कारण-पूर्वक नहीं होनेसे छिन्नभिन्न नहीं होपाते हैं कारण कि पट घट, पुस्तक आदि स्कन्धों के कारण-पूर्वक हुये अवयव तो टूट फूटे जारहे देखे गये हैं आत्मा,आकाश,आदिके नहीं । अर्थात्-पौनीसे सत और सत से कपडा बनता है, यहाँ वस्त्र के अवयव कारणपूर्वक बने हैं, इसी प्रकार घट के अवयव भी कपाल, कपालिका, स्थास, आदि से बने हैं, अतः घट, पट, के अवयव तो विशीर्ण होजाते हैं किन्तु आत्म द्रव्य या आकाश के अखण्ड अवयव (प्रदेश) तो कारणों को पूर्ववर्ती मानकर उपजे नहीं हैं केवल तिस प्रकार आत्मा या आकाशके आश्रयपने करके उन प्रदेशों में अवयवपनेका व्यवहार होजाता है 'अब उपसर्ग पूर्वक 'यु मिश्रणामिश्रणयोः' धातु से अप् प्रत्यय करने पर अवयव शब्द बन जाता है। चारों ओर से विश्लेष को प्राप्त होजाय इस प्रकार “अवयव" इस शब्द की व्याकरण द्वारा व्युत्पत्ति की गयी हैं,
है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्रात्मा, आकाश, परमाणु, इनमें अवयव-सहितपना घटित नहीं होता है आत्मा के इस प्रकार विभाग को प्राप्त होरहे मुख्य प्रदेश नहीं मानेगये हैं केवल परमाणु के परिमाण की नाप करके चिन्हित किये जारहेपने से उन आत्मा के अखण्ड अशों को प्रदेशपन का कोरा नाम मात्र कथन कर दिया है जैसे कि आकाश, धर्म, आदि के विष्कम्भकम से की गयी अशकल्पना अनुसार प्रदेश या अवयवों का केवल व्यवहार कर लिया जाता है तिसकारण आत्मा के प्रदेशों का छिन्न,भिन्न, होजाना नहीं बन पाता है। वस्तुतः देखा जाय तो अवयव शब्दका मुख्य अर्थ तो घट, पट,आदि खण्डितानेकदेश अशुद्ध द्रव्यों में ठीक घटित होता है अवयवों में अवयवी की वृत्ति मानी जाय अथवा अवयवों में अवयवोंका वर्तना माना जाय हमको दोनों अभीष्ट हैं किन्तु यह प्रक्रिया कारण-पूर्वक उपजने वाली अशुद्ध द्रव्यों में है, आकाश या आत्मा के अंशों में तो उपचार अवयवपनका निरूपण किया गया है।