Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वाति
स्थूल स्कन्धों का चक्षुत्रों से प्रत्यक्ष होरहा है, किन्तु सूक्ष्म स्कन्ध या परमारणों को अनुमान या आगम ज्ञान से जान लिया जाता है, प्रतीतियों के अनुसार सार वस्तुकी व्यवस्था है, और वस्तु की व्यवस्थिति अनुसार समीचीन प्रतीतियां होजाती हैं । ज्ञापकपक्ष में एक को जानकर उससे अज्ञात को जानने में कोई अन्योन्याश्रय दोष नहीं आता है।
“संख्येयासंख्येयाश्च पुगद्लाना” इस सूत्र में सामाम्य रूप से पुद्गलों के प्रदेशों का निरूपण किया गया है, यों अविशेष रूप से कथन होने के कारण एक पुद्गल परमाणु के भी उस प्रकार अनेक प्रदेश होजायं , ऐसी आशंका उपस्थित होने पर उसका निषेध करनेके लये सूत्रकार इस अगले सूत्र को कहते हैं।
नाणाः॥११॥
परमारण के प्रदेश नहीं हैं । अर्थात्-अरण केवल एक प्रदेश परिमाण वाली है, अतः जैसे आकाश के एक प्रदेशके पुन: अन्य प्रदेश नहीं हैं, उसी प्रकार एक अविमागी परमाण का भी अप्रदेशपना जान लेना चाहिये । जब कि परमाण से कोई छोटा पदार्थ जगत् में नहीं है तो इस परमारण के प्रदेश कैसे भिन्न किये जा सकते हैं ? अतः “ अत्तादि अत्त मझ अत्तत्तं रणव इन्दियेगेज्जं " ऐसे सूक्ष्म अण के दो तीन आदि कितने भो प्रदेश नहीं माने गये हैं।
संख्येयासंख्येयाश्च प्रदेशा इत्यनुवर्तनात्त एवाणो : प्रतिषिध्यते । तथा च
पूर्व सूत्र से संख्येय, असंख्येय तथा च शब्द करके लिये गये अनन्त और प्रदेश इन पदों की अनुवृत्ति कर लेने से वे संख्यात, असंख्यात, और अनन्त प्रदेश ही अरण के इस सूत्र द्वारा प्रतिषिद्ध किये जाते हैं और तैसा होने पर सूत्र का अर्थ ऐसा होजाता है कि
नाणोरिति निषेधस्य वचनानाप्रदेशता।
प्रसिद्धौ वैकदेशत्वात्तस्याणुत्वं न चान्यथा ॥ १ ॥ अण के प्रदेश नहीं हैं इस प्रकार सूत्रकार द्वारा निषेध का कथन कर देने से उस अण का अप्रदेशपना या प्रदेशरहितपना नहीं प्रसिद्ध होजाता है क्योंकि उस अरण का एक प्रदेश माना जा रहा है. अन्यथा यानी प्रण का एक भी प्रदेश नहीं मानने पर तो खर-विषाण के समान उसका अपना ही नहीं रक्षित रह सकेगा अर्थात्-जब अरण स्वयं एकप्रदेश परिमित है तो फिर उसके दूसरे प्रदेश नहीं होसकते हैं अकेला रुपया पुनः दो,तीन, आदि रुपयों वाला नहीं है। एक बात यह भी है कि एयादीया गणना वीयादीया हवंति संखेज्जा । तीयादीण रिणयमा कदित्ति सण्णा मुणेदवा" जैन सिद्धान्त में संख्यातों को दो से प्रारम्भ किया गया है, गुण जैसे स्वयं निर्गुण हैं उसी प्रकार एक प्रदेश वाला भी अरण स्वय दो आदि प्रदेशों से रहित होरहा सन्ता अप्रदेश है।
नोकप्रदेशोष्यणुन भवतीति युक्तं तस्यावस्तुत्वप्रसंगात् । ननु चाणोः प्रदेशत्वे प्रदेशी का स्यात् स एव सादिगुणाश्रयत्वाद्गुणीति ब्रुमः । कथं स एव प्रदेशः प्रदेशी च ? विरोधादिति