Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक - वार्तिक
गुणों से सहित है जैसे कि गुणवान होने से पुद्गल स्कन्ध द्रव्य माना जाता है। दूसरी बात यह है, कि प्रदेश और प्रदेशी स्वभावों से रहित तो जगत् में कोई द्रव्य ही सिद्ध नहीं है । यदि वैशेषिक यों कहैं कि आकाश, आत्मा, आदिक द्रव्य न तो प्रदेशस्वरूप हैं और न प्रदेशीस्वरूप हैं किन्तु वे द्रव्य रूप से सिद्ध हैं । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उन आकाश आदि के अनन्त, असंख्यात, अनन्तानन्त आदि प्रदेशों से सहितपन का साधन कर देने से प्रदेशीपन की व्यवस्था करा दी गयी है ।
स्यादाकूतं ते अनेकप्रदेशः परमाणुर्द्रव्यत्वाद् घटाकाशादिवदिति । तदसत् - धर्मिग्राहक प्रमाणवाधितत्वात् पक्षस्य कालात्ययापदिष्टत्वात् हेतोः कालेन व्यभिचाराच्च । स्या द्वादिनां मीमांसकानां च शब्दद्रव्येखनिकांतात् ।
यदि कटाक्ष-कर्ताओं का यह चेष्टित होय कि परमाणु ( पक्ष ) अनेकप्रदेशों वाला है, ( साध्य ) द्रव्य होने से ( हेतु ) घट, आकाश, आत्मा, यादि के समान । ग्रन्थकार कहते हैं कि तुम्हारा वह कथन प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि पक्ष होरहे परमाण स्वरूप धर्मी को ग्रहण करने वाले प्रमाण करके वाधित होजाने से द्रव्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट ( वाधित हेत्वाभास ) है अर्थात् जो कोई प्रमाण परमाणु को जानेगा वह चरमावयव होरहे परमाण को केवल एक प्रदेश रूप ही जान पावेगा यदि इसमें भी अनेक प्रदेश माने जायंगे तो उन अनेक प्रदेशों में पड़े हुये एक प्रदेश का जहां सद्भाव होगा वह परमाण व्यवस्थित किया जायगा बहुत दूर भी जाकर जब कभी परमाणु सिद्ध होगा वह एक प्रदेश स्वरूप ही निर्णीत किया जायगा, ऐसी दशा में भी परमाणुके अनेक प्रदेश स्वीकार करते जाना कालात्ययापदिष्ट है, यानी एक प्रदेशपन, इस की सिद्धि होचुकी पुनः साधनकाल के प्रभाव होजाने पर तुमने हेतु प्रयुक्त किया है, यों साध्याभाव का निर्णय होचुकने पर द्रव्यत्व हेतु से अनेक प्रदेशत्व की सिद्धि नहीं होसकती है । दूसरा दोष यह है कि द्रव्यत्व हेतु का काल द्रव्य करके व्यभिचार आता है, काल भला द्रव्य तो है किन्तु अनेक प्रदेशों वाला नहीं है । तीसरी बात यह है कि स्याद्वादी और के यहाँ माने गये शब्द द्रव्य करके व्यभिचार आता है, वैशेषिक या नैयायिक भले ही शब्द को गुण मानें किन्तु स्पर्श, वेग, संयोग, आदि गुणों का धारी होने से शब्द का द्रव्यपना निर्णीत है । अथवा इस पंक्ति का अर्थ यों कर दिया जाय कि स्याद्वादियों के यहाँ काल द्रव्य से व्यभिचार है, और मीमांसकों के यहाँ माने गये शब्द द्रव्य करके व्यभिचार आता है, मीमांसक द्रव्य मानते हुये शब्र को प्रदेशों से रहित स्वीकार करते हैं किन्तु स्याद्वादी तो शब्द को प्रशुद्ध द्रव्य मानते हुये साथ ही अनेकप्रदेशी भी इष्ट कर लेते हैं ।
तथाहि —— घट | दिर्भिद्यमानपर्यन्तो भेद्यत्वान्यथानुपपत्तेः योऽसौ तस्य पर्यन्तः स परमाणुरिति परमाणुग्राहिणा प्रमाणेन नेिक प्रदेशित्वं वाध्यते तस्यानेकप्रदेशत्वे परमाणुत्वविरोधात् ।
ग्रन्थकार ने वैशेषिकों के द्रव्यत्व हेतु को वाधित कहा था उसी को स्पष्ट कर यों दिखलाते हैं कि घट, पट, प्रादिक पदार्थ ( पक्ष ) छोटे छोटे अवयव रूप से छिन्न भिन्न किये जारहे पर्यन्तभूत किसी चरमावयव पदार्थ को धार रहे हैं, अन्यथा यानी अन्तपर्यन्त उनके छोटे छोटे टुकड़े होजाना