Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
स्वलक्षण को विषय करने वाला ही स्वलक्षण-अध्यवसाय करसकता है, तिस कारण सिद्ध हुप्रा कि स्वलक्षण का अध्यवसाय करने वाला ज्ञान ( निश्चय ) स्वलक्षण को पालम्बन ( विषय ) करने वाला ही होना चाहिये । इसप्रकार अन्यथानुपपत्ति से यह सिद्ध हुआ कि निश्चय ज्ञान वस्तुभूत को विषय--करने वाला है, अन्यथा यानी वस्तु को विषय करने वाला नहीं मानने पर अनुपपत्ति यानी निश्चय ज्ञान करके दृष्ट अर्थ के अध्यवसाय की सिद्धि रहीं होपाती है। और इस प्रकार उस निश्चय के सद्भाव और प्रभाव करके परमाणस्वरूप वस्तु के स्वभावों का भेद अवश्य ही होजावेगा, इस कारण सत्व, द्रव्यत्व, पदार्यत्व आदि स्वभावों करके निश्चय किये जारहे और परमाणत्व क्षणिकत्व, असाधारणत्व, सूक्ष्मत्व आदि स्वभावों करके नहीं निश्चय किये जा रहे परमाणयें अवश्य अनेक स्वभाव वाले सिद्ध हो ही जाते हैं, जैसे कि केश, धान्य, आदिपने करके निश्चय को प्राप्त होरहे और विरलपन, असंसृष्टपन, सान्तरालपन, आदि करके नहीं निश्चय किये जारहे वे परमाणु समझ लेने योग्य हैं।
यदि सभी प्रकारों से उन परमाणों का निश्चय नहीं माना जायगा जो कि वौद्धों ने परमागों के अप्रतिभातपन का पक्ष लेरखा है, तब तो विभ्रम के भी प्रभाव होजाने का प्रसंग होगा ऐसी दशा में बौद्धों का यह कहना शोभा नहीं पायगा कि परमाणऐ ही अविद्यमान होरहे स्थूल आकार को किसी विभ्रम से दिखला देती हैं, यदि बौद्ध परमारणों का सर्वथा अनिश्चय होने पर भी उन में भ्रान्तिज्ञान होने को स्वीकार कर लेंगे तब तो अतिप्रसंग होजायगा यानी--मरीचिकाचक्र के नहीं होने पर भी जल की भ्रान्ति उपज जानी चाहिये, सीप के नहीं होने पर भी या सोते हये पुरुष को भी रजत चांदी का भ्रान्तिज्ञान होजाना चाहिये, बात यह है कि लम्बी पड़ी हुयी वस्तु को जानकर ही रस्सी में सांप का ज्ञान होसकता है, अन्यथा नहीं।
सधादिना च निश्चयमानोवयवी वहिर्न परमाणव इत्ययुक्त, सर्वानिश्चयेऽवयव्यसिद्धः। तो मूल्यदानक्रयिणः परमाणवः। प्रत्यक्षबुद्धावात्मानं च न समर्पयंति प्रत्यक्षतां च म्ब कुर्वन्तीति ततः परमार्थसंतः पुगद्लानां स्कंधा द्वयणुकादयोऽनेकविधा इति तेषां संख्येपादिप्रदेशाः प्रातःतिका एव ।
बौद्ध कहते हैं कि सत्व, द्रव्यत्व, आदि स्वभावों करके अवयवी का निश्चय किया जा रहा है जो कि अवस्तुभूत है, इसका ज्ञान भी अज्ञान सारिखा है किन्तु वहिरंग परमाणयें तो सत्व आदि करके नहीं निश्चय की जा रही हैं, अतः वे अप्रतिभात ही रहीं। ग्रन्थकार कहते हैं कि बौद्धों का यह कहना युक्तियों से रीता है, क्यों कि तुम्हारे पूर्व कथन--प्रनुसार सम्पूर्ण पदार्थों का निश्चय नहीं होने पर अवयवी की भी सिद्धि नहीं है, जब तुम बौद्ध सत्व आदि करके भी परमाण का निश्चय होना नहीं मानते हो तबतो वे परमाण मूल्य नहीं देकर खरीदने वाले हुये, यह बड़ा भारी दोषाया। प्रत्यक्षबूद्धि में परमाणयें अपने को समर्पण नहीं करती हैं, और अपना प्रत्यक्ष होजानापना रही हैं यह " अमूल्यदान ऋयित्व" दोष है, तिस कारण से पुगद्लों के अनेक प्रकार द्वषणुक, त्र्यणक प्रादि स्कन्ध आप बौद्धों को परमार्थ रूप से सद्भूत मानने पड़ेंगे। यों इस सूत्र द्वारा कहे गये उन पौगलिक स्कन्धों के संख्येय, असंख्येय प्रादि प्रदेश तो प्रतोतियों अनुसार सिद्ध ही होजाते हैं कतिपय