Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
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भी सामान्य के विशेष होरहे द्रव्यत्व, पृथिवीत्व, आदि को माना है, सभी प्रवादी विद्वान् अनिष्टतत्व से रहित होरहे, इष्ट तत्व को स्वीकार करते हैं, अतः वह इष्ट तत्त्व विचारा स्वरूप की अपेक्षा सतरूप है, और पररूप होरहे अनिष्ट तत्त्व की अपेक्षा असतरूप है, जो विद्वान अनिष्टनात्मक पदार्थों से शून्य होरहे अपने 'इष्ट तत्व को सत् इस प्रकार जान रहे हैं वे प्राचार्यों करके सिद्धान्तित किये गये सत्स्वरूप और असत्स्वरूप एक पदार्थ का फिर किस प्रकार निराकरण कर सकेंगे ? अर्थात्--नहीं।
निष्क्रियेतरताभावे वहिरंतः कथंचन ।
प्रतीतेधिशून्यायाः सर्वथाप्यविशेषतः ॥ ७३ ॥
कहिरंग पदार्थ और अन्तरंग पदार्थों में निष्क्रियपन और उससे भिन्न सक्रिययन के सद्भाव होने में वाधकों से शून्य होरही प्रतीति होरही है, अतः पदार्थों को कथंचित् निष्क्रिय और सक्रिय स्वीकार कर लेना चाहिये, सभी प्रकार से कोई विशेषता नहीं है। क्रिशसहितपन और क्रियारहितपन दोनों की अन्तररहितप्रसिद्धि होरही है, इस प्रकरण में प्रात्मा को सक्रिय मानना युक्तिपूर्ण है । यहाँ तक इस सूत्र का विवरण समाप्त हुआ।
--" प्रजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला: " इस सूत्र में काय शब्द का ग्रहण कर देने से इन द्रव्यों के नाना प्रदेशों का अस्तित्व तो निश्चित हुआ किन्तु उन प्रदेशों की ठीक संख्या का परिज्ञान नहीं होसका है, कि किस द्रव्य के कितने कितने प्रदेश हैं ? अतः उन प्रदेशों की नियत संख्या का ज्ञान कराने के लिये श्री उमास्वामी महाराज इस अग्रिम सूत्र को कहते हैं- ।
"असंख्येयाः प्रदेशा धर्मामैकजीवानाम्॥८॥
धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य तथा एक जीव द्रव्य के असंख्याते प्रदेश हैं, अर्थात्--जगत् में धर्म द्रव्य एक ही है, और अधर्म द्रव्य भी एक ही है, जीवद्रव्य अनन्तानन्त हैं, अतः पूरे धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य तथा एक जीव द्रव्य इन में से प्रत्येक के लोकाकाश के प्रदेशों बराबर मध्यम असंख्यातासंख्यात गिनती वाले असंख्याते प्रदेश हैं, पुद्गल परमाणु जितने स्थान को घेरती है वरफी के समान उतने घन चौकोर आकाश स्थल को प्रदेश कहा जाता है, संकोच, विस्तार स्वभाववाला जीव भले ही कर्मों से निर्मित छोटे या बड़े शरीर के बराबर होय किन्तु केवल-समुद्घात करते समय लोकपरण अवस्था में सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप लेता है।
प्रदेशेयत्तावधारणार्थमिदं धर्माधर्मयोरेकजीवस्य च । कुतः पुनरसंख्येयप्रदेशता धर्मादीनां प्रसिद्धयतीत्यावेदयति ।
धर्म, अधर्म, और एक जीव के प्रदेशों की इतनी परिमाणपन-संख्या का अवधारण करने के लिये यह सूत्र प्रारम्भा गया है । यहाँ कोई शिष्य प्रश्न करता है कि धर्म आदिकों का फिर असं.
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