Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम - अध्याय
गुणः स्यात्तस्य तद्वच्च निष्क्रियत्वाविशेषतः । गुणाः कर्माणि चैतेन व्याख्यातानीति सूचनात् ॥ २१॥ नतावदात्मसंयोगः केवलः कर्मकारणं । नुः प्रयत्नस्य हस्तादौ क्रियाहेतुत्वहानित: ॥२२॥ नैकस्य तत्प्रयत्नस्य क्रिया हेतुत्वमीक्ष्यते । शरीरायोगिनोन्यस्य ततः कर्मप्रसंगतः ॥ २३ ॥
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श्रात्मा के हो रहे संयोग से और प्रयत्न से हाथ में कर्म (क्रिया) उपज जाती है, यह सिद्धान्त जिन वैशेषिकों करके स्वीकार किया गया है वे करंगाद मतानुयायी भी उक्त कथन करके प्रतिक्षेप को प्राप्त कर दिये गये हैं क्योंकि उन आत्मा के संयोग और आत्मा के प्रयत्न में हाथ में उस क्रिया को करने की शक्ति का योग नहीं है अर्थात् कणाद ऋषि प्ररणीत वैशेषिक दर्शन के पांचवें अध्याय का पहिला सूत्र है "आत्मसंयोग प्रयत्नाभ्यां हस्ते कर्म" आत्मा के संयोग और ग्रात्मा के प्रयत्न से हाथ में क्रिया उपज जाती है, क्रिया का समवायी कारण हाथ है, प्रयत्न वाले आत्मा का संयोग असमवायी कारण है और प्रयत्न निमित्त कारण है। वैशेषिकों ने पांचवें अध्याय के अगले सूत्रों में भी कर्म पदार्थ की परीक्षा की है । हम ग्रन्थकार को यह कहना है कि साधर्म्य, वैधर्म्य अनुसार प्रमेय निरूपण करने वाले इन वैशेषिकों के यहां क्रियावान् पदार्थों के साथ विसदृशपना होने से जिस प्रकार निष्क्रिय हो रहा आत्मा बेचारा काल आदि के समान क्रियाओं का सम्पादक नहीं है उसी प्रकार प्रयत्न का साथी हो रहा आत्माका संयोग नामक गुण भी क्रिया का कारण नहीं है क्योंकि उस श्रात्म- संयोग या प्रयत्न को उन काल श्रादिक के समान क्रियारहितपन का कोई प्रन्तर नहीं है "दिक्कालावाकाशञ्च क्रियावद्वधम्र्यान्निष्क्रियाणि" चकारादात्मसंग्रहः । इसके लगे हाथ ही वैशेषिकों के इस प्रकार सूत्र करने से कि इस वान् के साथ विधर्मापन करके गुण और कर्मों का भी निष्क्रियपने करके व्याख्यान किया जा जा चुका है, केवल आत्मसंयोग तो कर्म का कारण नहीं हो सकता है ।
अर्थात- वैशेषिक दर्शन में पांचवें अध्याय के दूसरे आन्हिक का वाईसवां सूत्र " एतेन कर्माणि गुणाश्च व्याख्याता:" है, इस सूत्र के अनुसार कोई भी गुरण भला क्रिया का कारण या अधिकर नहीं हो सकता है ऐसी दशा में केवल आत्म- संयोग भी तो उत्क्षेपण आदि कर्म का कारण नहीं बन पाता है, आत्मा के प्रयत्न को भी हाथ आदि क्रिया के हेतुपन की हानि है क्योंकि उस श्रात्मा के अकेले प्रयत्न को क्रिया का हेतुपना नहीं देखा जाता है, कोरा प्रयत्न यदि क्रिया का कारण होता तो शरीर का सम्बन्ध नहीं रखने वाले अन्य प्रदेशवर्ती व्यापक आत्मा के उस प्रयत्न से भी क्रिया होने का प्रसंग आवेगा !