Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक अर्थात्-आत्मा को व्यापक मानने वाले वैशेषिकों के यहां शरीर से अतिरिक्त थम्भ या भीत में भी आत्मा विद्यमान है आत्मा का प्रयत्न गुणभी वहां प्रात्मा में समवेत हो रहा है किन्तु भींत में क्रिया नहीं देखी जाती है जो गुण वेचारे स्वयं क्रिया रहित हैं वे अन्य द्रव्यों में क्रिया के प्रेरक-कारण नहीं हो सकते हैं व्यापक द्रव्यका गुण किसी एक देशवर्ती स्वकीय शरीर नामक उपाधिमें ही क्रिया का प्रेरक कारण नहीं बन सकता है या तो सम्पूर्ण स्वसंयोगी पदार्थों में क्रिया को उपजावे अथवा कहीं भी क्रिया को नहीं उपजावे।
वात यह है कि वैशेषिकों के यहां स्वीकृत व्यापक आत्मा या उसके संयोग और प्रयत्न गुण भला हाथ आदि में क्रिया की उत्पत्ति नहीं करा सकते हैं।
सहितावात्मसंयोगप्रयत्नौ कुरुतः क्रियाः।
हस्तादावित्यसंभाव्यमन्धयोः सहदृष्टिवत् ॥२४॥ यदि वैशेषिक यों कहैं कि प्रात्मा का अकेला संयोग या प्रयत्न गुण तो हाथ में क्रिया को नहीं उपजा सकते हैं, हाँ प्रात्मा के संयोग और प्रयत्न दोनों सहित होते हुये हाथ, पांव, आदि में क्रियाओं को कर देते हैं। प्राचार्य कहते हैं कि यह असम्भव है । जैसे कि दो अन्धे पुरुष साथ होकर भी दर्शन को नहीं कर पाते हैं अर्थात्-अकेला अकेला अन्धा भी देख नहीं सकता है और दो अन्धे मिल कर भी चाक्षप-प्रत्यक्ष नहीं कर पाते हैं, इसी प्रकार मिलकर प्रात्मसंयोग और आत्मप्रयत्न भी हाथ में क्रियाओं
अदृष्टापेक्षिणो तो चेदकुर्वाणौ क्रियां नरि।
हस्तादौ कुरुतः कर्म नैवं कचिददृष्टितः॥ २५ ॥
यदि वैशेषिक पुनः यों कहैं कि अदृष्ट यानी विशेष पुण्य, पाप की अपेक्षा को कर रहे वे संयोग और प्रयत्न भले ही आत्मा में क्रिया को नहीं कर रहे हैं किन्तु हाथ, शर आदि में क्रिया को कर देते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि इस प्रकार कहीं भी नहीं देखा गया है, विना देखी हुयी बात को केवल तुम्हारी प्रतिज्ञा-मात्र से स्वीकार करने की हमें टेव नहीं है ।
उष्णापेक्षो यथा वन्हिसंयोगः कलशादिषु । रूपादीन् पाकजान सूते न वन्ही स्वाश्रये तथा ॥२६॥ नसंयोगादिरन्यत्र क्रियामारभते न तु । स्वाधारे नरि तस्येत्थं सामर्थ्यादिति चेन्न वै ॥२७॥