Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
सकता है, अतः क्रिया से क्रियावान को सर्वथा अभिन्न भी नहीं कह सकते हैं, अतः क्रिया और क्रियावान में कथंचित् भेद स्वीकार करना ही बुद्धिमानों को सन्तोष कराने वाला है।
विभिन्नप्रत्ययत्वं च सर्वथा यदि गद्यते। तत एव तदा तस्यासिद्धत्वं प्रतिवादिनः ॥ ५० ॥ कथंचित्तु न तत्सिद्धं वादिनामित्यसाधनं । विरुद्ध वा भवेदिष्टविपरीतप्रसाधनात् ॥ ५१ ॥
वैशेषिकों ने क्रिया और क्रियावान के सर्वथा भेद को साधने में विभिन्नप्रत्ययपना हेतु दिया है, प्रत्यय शब्द का अर्थ ज्ञान पकड़ा जाय तो भिन्न भिन्न ज्ञान का गोचरपना अर्थ निकलता है और प्रत्यय का अर्थ कारण करने पर क्रिया और क्रियावान के कारण भिन्न भिन्न हैं, यह हेतु का अर्थ प्रतीत होता है, अस्तु-वैशेषिक चाहे किसी भी अर्थको अभिप्रेत करें हमें केवल इतना ही कहना है कि विभिन्न प्रत्ययपना क्रिया और क्रियावान् में सर्वथा कहा जा रहा है तब तो तिस ही व यानी कथंचित् विभिन्न प्रत्ययपना उन क्रिया, क्रियावानों में ज्ञात होजाने से प्रतिवादी होरहे जैनों के यहां वह सर्वथा भिन्न प्रत्ययपना हेतु प्रसिद्ध हेत्वाभास है अर्थात्-जैन सिद्धान्त अनुसार सर्वथा भिन्न प्रत्ययपना हेतु तो पक्षभूत क्रिया और क्रियावान् में नहीं ठहर पाता है, अतः वैशेषिकों का हेतु स्वरूपासिद्ध है । हां यदि कथंचित् भिन्न प्रत्ययपना हेतु कहा जाय तो प्रतिवादी जैनों को तो सिद्ध है किन्तु। वादी होरहे वैशेषिकों के यहां वह कथचित् विभिन्न प्रत्ययपना हेतु सिद्ध नहीं है, इस कारण फिर भी वह हेतु समीचीन साधन नहीं बन सका। दूसरी बात यह है कि कथंचित् विभिन्न प्रत्ययपना हेतु क्रिया और क्रियावान् में कथंचित् भेद को ही साधेगा, अतः इष्ट होरहे सर्वथा भेद से विपरीत कथंचित् भेद का अच्छा साधन कर देने से वैशेषिकों का कथंचित् भिन्न प्रत्ययपना हेतु विरुद्ध हेत्वाभास होजायगा
साध्यसाधनवैकल्यं दृष्टांतस्यापि दृश्यताम्। सत्त्वेनाभिन्नयोरेव प्रतीतेः सह्यविंध्ययोः ॥ ५२ ॥
वैशेषिकों के द्वारा प्रयुक्त किये गये सह्य और विंध्य पर्वत दृष्टान्तों के भी साध्यविकलता और स धनविकलपा देखी जा रही है। सत्पने करके अभिन्न होरहे ही सह्य और विंध्य पर्वतों की बाल गोपालों तक को प्रतीति होती है । अर्थात्-सह्य पर्वत सद्भूत है और विंध्याचल भी सद्भूत है सत्पने करके या वस्तुत्व, पदार्थत्व रूप से सह्य और विध्य अभिन्न हैं, यदि सत्पने करके भी सह्य और विंध्य को भिन्न मान लिया जायगा तो दोनों में से एक के आकाश-पुष्प समान असत्पने का प्रसंग आजावेगा, अतः दृष्टान्त में वैशेषिकों का "सर्वथाभिन्नत्व" नामक साध्य नहीं रहा और सर्वथा भिन्नप्रत्ययपना हेतु भी नहीं ठहरा जिन स्कन्ध या परमाणुओं से सह्य या विंध्य पर्वत बनेहुये हैं। उनमें भी पुद्गलपने करके अभेद है, इस कारण साध्यविकल और साधन विकल द्रष्टान्त होगया।