Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
कर्मों का क्षय होते ही उसी समय ऊर्ध्वगति स्वभाव करके सात राजु ऊचा गमन करके सिद्धलोक में विराजमान होजाते हैं, भले ही सिद्धों में ऊर्ध्वगतिस्वभाव सदा विद्यमान है किन्तु ऊपर धर्म द्रव्य का अभाव होनेसे सिद्ध भगवान् पुनः ऊपर अलोकाकाश में गमन नहीं कर पाते हैं । ज्ञानावरण प्रादि कर्मों के साथ संगति होजाने से पूदगलों के समान संसारी आत्माओं की परिस्पन्दस्वरूप क्रियायें अनेक प्रकार की हैं, स्व और पर कारणों के अधीन होकर अनेक भेदों को धार रहीं वे क्रियायें परस्पर मिश्रित नहीं होजाती हैं। भावार्थ--स्वकीय और परकीय कारणों के वश होरहीं वे क्रियायें न्यारी न्यारी है, घोड़े पर चढ़ा हुआ अश्व वार स्वयं और घोड़े को निमित्त पाकर नाना प्रकार की भिन्न भिन्न क्रियाओं को कर रहा है, वे क्रियायें अश्ववार से कथंचित् भिन्न अभिन्न स्वरूप हैं।
सान्यैव तद्वतो येषां तेषां तद्वयशून्यता।
क्रियाक्रियावतोभै देनाप्रतीतेः कदाचन ॥४७॥ वह क्रिया उस क्रियावान् से सर्वथा भिन्न ही है यह सिद्धान्त जिन वैशेषिकों के यहाँ स्वीकार किया गया है उन वैशेषिक या नैयायिकों के यहाँ उन क्रिया और क्रियावान् दोनों का शून्यपना प्राप्त होता है क्योंकि क्रिया और क्रियावान् की भिन्नपने करके कदाचित् भी प्रतीति नहीं होती है। अर्थात्-जैसे अग्नि को उष्णता से सर्वथा भिन्न मानने पर उष्णता के विना अग्नि की कोई सत्ता नहीं
और पाश्रय अग्नि के विना उष्णता भी ठहर नहीं पाती है, दोनों का अभाव होजाता है, उसी प्रकार क्रियावान् द्रव्य को क्रिया से भिन्न मानने पर क्रिया और क्रियावान् दोनों पदार्थ शून्य होजाते हैं । कोई क्रिया या क्रियावान् को न्यारा दिखा तो दे ?।
क्रियाक्रियाश्रयो भिन्नो विभिन्न प्रत्ययत्वतः। सह्यविंध्यवदित्येतद्विभेदैकांतसाधनं ॥४८॥ धर्मिग्राहिप्रमाणेन हेतोधिननिर्णयात् । कथंचिद्भिन्नयोस्तेन तयोर्ग्रहणतः स्फुटं ॥ ४६॥
वैशेषिक अनुमान बनाते हैं कि क्रिया और क्रिया का आश्रय होरहा क्रियावान् द्रव्य (पक्ष ) ये दोनों सर्वथा भिन्न हैं ( साध्य )। विशेष रूप से 'भिन्न है' "भिन्न हैं" इस ज्ञान का विषय होनेसे ( हेतु ) सह्यपर्वत और विध्य पर्वत के समान (अन्वय दृष्टान्त )। इस प्रकार यह क्रिया और क्रियावान् के सवथा भेद को एकान्त से साधने वाला अनुमान है। प्राचाय कहते हैं कि इस अनुमान में पड़े हुये हेतु की धर्मी को ग्रहण करने वाले प्रमाण करके वाधा होजाने का निर्णय होरहा है क्योंकि पक्ष कोटि में पड़े हुये कथंचित् भिन्न होरहे ही उन क्रिया और क्रियावान् का उस धर्मी ग्राहक प्रमाण करके स्पष्ट रूप से ग्रहण होरहा है। क्रिया और क्रियावान न्यारे न्यारे किसी को नहीं दीख रहे हैं, क्रिया के नहीं उपजने पर भी अथवा क्रिया के नष्ट होजाने पर भी क्रियावान पदार्थ विद्यमान रह