Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय क्रियावत्वप्रसंगो वा तेषां वायुधरांबुवत् । इत्यचोद्यं बलाधानमात्रत्वाद्गमनादिषु ॥ १३ ॥ धर्मादीनां स्वशक्त्यैव गत्यादिपरिणामिना । यथेन्द्रियं बलाधानमात्रं विषयसंनिधौ ॥ १४॥
किसी विद्वान् का प्राचार्यों के ऊपर प्राक्षेप है, कि धर्म आदिक तीन द्रव्य ( पक्ष ) दूसरे द्रव्यों में गति स्थिति, और अवगाह के कारण नहीं होसकते हैं, ( साध्य ) क्रियारहितपना स्वभाव होने से ( हेतु ) आकाश के फूल समान ( दृष्टान्त ) । यदि धर्म, अधर्म और आकाश को यथाक्रम से गति, स्थिति, और अवगाह देना इनका कारण माना जायगा तो वायु, पर्वत, और जल के समान उन धर्म आदिकों के क्रिया--सहितपन का प्रसंग होजावेगा अर्थात्-वायु क्रियासहित हो रही ही तृण प्रादिकों की गति का निबन्ध है, पर्वत क्रिया करने की सामथ्यं को धार रहा ही पक्षी, पशु, आदि की स्थिति का अवलम्ब होरहा है। जल भी स्वयं क्रियावान् होरहा मछली, डेल, प्रादि के अवगाह का हेतु होरहा है। इसी प्रकार धर्म आदिक भी क्रियावान् होजायंगे।
ग्रन्थकार कहते हैं कि यह चोद्य उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि अपनी शक्ति करके गति प्रादि स्वरूप परिणत होरहे पदार्थों के गमन, स्थिति, प्रादि में धर्म आदि द्रव्यों को केवल बलाधायकपना है, जिस प्रकार कि रूप रस, आदि विषयों के सन्निधान होने पर चक्षु आदि इन्द्रियां चाक्षुषप्रत्यक्ष आदि की उत्पत्ति में प्रात्माके केवल बल का प्राधान कर देती हैं । भावार्थ-जैसे कि आत्मा को ज्ञान करने में इन्द्रियां थोडा सहारा लगा देती हैं, उसी प्रकार गति, स्थिति, अवगाह क्रियाओं में धर्म आदिक तीन द्रव्य स्वल्प सहारा लगाने वाले उदासीन कारण हैं, समर्थ कारण तो गति-परिणत या स्थिति--परिणत अथवा अवगाह--परिणत पदार्थ ही हैं । अतः धर्म आदिकों के परिस्पन्द क्रिया से सहितपन का प्रसंग नही आपाता है ।
पुसः स्वयं समर्थस्य तत्र सिद्धेनं वान्यथा। तथैव द्रव्यसामर्थ्यान्निष्कियाणामपि स्वयं ॥ १५ ॥ धर्मादीनां परत्रास्तु क्रियाकारणमात्रता। नचैवमात्मनः कालक्रियाहेतुत्वमापतेत्॥१६॥ सर्वथा निष्क्रियस्या पि स्वयं मानविरोधतः ।