Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
कि यह ढंग तो ठीक नहीं । व्यभिचार स्थल को पक्षकोटि में डालने का विचार रखना अच्छा नहीं है, काल को सर्वगत मानने पर तुम्हारे पक्ष की अनुमानप्रमाण और आगमप्रमाण से वाधा प्राजाने का प्रसंग आता है।
तथाहि-कालोऽसर्वगतो नानाद्रव्यत्वात्-पुलवदि यनुमान पक्षस्य वाधकं । न चात्रासिद्धो हेतु : तस्य नानाद्रव्यत्वेन स्याद्वादिनां सिद्धत्वात्। नानाद्रव्यं कालः प्रत्या काशप्रदेशं युगपद्व्यवहारकालभेदान्यथानुपपत्तेः। प्रत्याक'शप्रदेशं मिन्नो व्यवहारकालः संकृस्कुरुक्षेत्राकाशलंकाकाशदेशयोदिवसादिभेदान्यथानुपपत्तेः । तत्र दिवसादिभेदः पुनः क्रियाविशेषभेदात् नैमित्तिकानां लौकिकानां च सुप्रसिद्ध एव । स च व्यवहारकालभेदो गौणः परैरभ्युपगम्यमानो मुरूपकालद्रव्यमंतरेण नोपपद्यते। यथा मुख्यसत्चमतरेण क्वचिदुपचरित सत्त्वमिति । प्रतिलोकाकाशप्रदेशं कालद्रव्यभेदसिद्धिस्तत्साधनस्यानवद्यत्वात् अन्यथानुपपन्नत्वसिद्धेः।
इसी बात को स्पष्ट कह कर यो दिखलाया जाता है कि काल द्रव्य ( पक्ष) अव्यापक है ( साध्य ) अनेक द्रव्य होने से ( हेतु ) पुद्गल के समान ( दृष्टान्त )। यह निर्दोष अनुमान तुम्हारे पक्ष का वाधक है, इस अनुमान में पड़ा हुआ हेतु प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि उस काल की नाना द्रव्यपने करके स्याद्वादियों के यहां सिद्ध कर दिया है। और भी लीजिये कि काल ( पक्ष ) अनेक द्रव्य है ( साध्य ) आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक ही समय में भिन्न भिन्न व्यवहार कालों की अन्यथा यानी कालको नाना द्रव्य माने विना, सिद्धि नहीं होपाती है । इस अनुमान का हेतु भी प्रसिद्ध नहीं है, देखिये व्यवहार काल ( पक्ष ) प्रत्येक आकाश के प्रदेशों पर भिन्न भिन्न वर्त रहा है ( साध्य) क्योंकि एक ही समय उत्तर प्रान्तवर्ती कुरुक्षेत्र सम्बन्धी आकाश और दक्षिण प्रान्तवर्ती लंका सम्बन्धी आकाश प्रदेशों में दिवस आदिका भेद अन्यथा यानी भिन्न भिन्न व्यवहार कालको माने विना नहीं बन पाता है।
यह भी हेतु प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि उन कुरुक्षेत्र, लंका आदि देशों में फिर दिवस प्रादि का भेद तो क्रियाविशेषों के भेद से होरहा निमित्तशास्त्रज्ञाता, ज्योतिषी पण्डित और लौकिक पुरुषों के यहाँ बहुत अच्छा प्रसिद्ध ही है अर्थात्-सूर्यके उदय और अस्त की अपेक्षा लंका और कुरुक्षेत्र का स्वल्प अन्तर पड़ जाता है । शीत और उष्णता में भी अन्तर है, आम्र आदि फलों का आगे पीछे पकना इत्यादि क्रियायें भी विशेषताओं को लिये हुये हैं। यों क्रियाविशेषों के अनुसार दिवस आदि भेद और न्यारे न्यारे स्थलों पर दिवस आदि भेदों करके उन व्यवहार कालों का भेद तथा व्यवहार कालों के भेद से काल को नाना द्रव्यपन साध दिया जाता है।
भिन्न, भिन्न, व्यवहार काल तो वैशेषिक, मीमांसक, आदि सबको मानने पड़ते हैं और वह दूसरे विद्वानों करके गौण होकर स्वीकार कर लिया भिन्न भिन्न व्यवहार काल तो मुख्य काल-द्रव्यके