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कोई उपयोग का स्वभाव रोसा है सो नवीन वस्तुविौं उपयोग विशेष थिरता पावै है। नवीन ग्रन्थ जोड़ने में चित्त को एकाग्रता विशेष होय है। तातै चित्त की विशेष लाग. देखि धर्मानुराग विशेष बढ़नेकों धर्मध्यान में । ३. कालविशेष लगावनेकू ग्रन्थ प्रारम्भ विचारचा है और मान का प्रयोजन यहां कछू नाहीं। मानं तौ संसारविष दीर्घ कर्मस्थिति के धारक जीव कषायनि के प्रेरे मिध्यादृष्टि मोहरस भीजै प्राणिनि को चाहे धर्मोनि के नाही, रोसा जानना । तब तरको ने कही ऐसे है तो भले है। परन्तु ग्रन्थविर्षे चूक भये पण्डित हैं सो तुम्हारी बुद्धि की निन्दा करेंगे। तातें होसि पावोगे। ताका गावाट मात: धर्म सेनापि निन्दा होने का तो कार्य नाही। ऐसे धर्म भावना रहित प्राणी कौन हैं जो धर्म के कार्य विर्षे निन्दा करें? तब तर्को नै कही धर्मसेवते तो निन्दा नहीं करेंगे। परन्तु ग्रन्थ में चूक देखि पण्डित हाँसि निन्दा करेंगे। ताको कहिये है—हे भाई, पण्डित दो प्रकार के होय हैं एक तौ धर्मार्थी पण्डित हैं एक मानार्थी पण्डित हैं। सो यह दोय प्रकार पण्डितनि का अन्तरङ्ग स्वभाव भित्र-भित्र है। ए पण्डित दोऊही घन तन समा न जानने। जैसे घन कहिये मेघ अन्तरङ्ग विर्षे तौ निमल जल कर भरे हो हैं । अरु ऊपरि ते स्यामघटारूप होय हैं तैसे हो जाका अन्तरगतौ शुद्ध महानिर्मल धर्मस्नेह जल करि भरचा है अर ऊरि तें संसार दशा ते उदासी, संजमी, तनतें क्षोश मलीन श्याम-सा दो. सो तो धर्मार्थी पण्डित है और मानार्था पण्डित है सो तनसमान है। जैसे, मनुष्यनि का तन ऊपरित तो महासुन्दर सबजनको मला दीखे और अन्तरविर्षे हाड, मांस,रुधिर, चामरूप, महामलीन, घिनकारी, सप्तधातुमई खोटा होय है। तैसे ही मानार्थी परिडत ऊपरितं महासुन्दर काध्यछन्द मनोज्ञ वासीसहित सो सबकी भला भासै। और अन्तरङ्ग धर्मवासनारहित, महामानी, पराये मानखण्डने का अभिलाषी, सजनता रहित, पराये भले गुणनि विर्ष अप्रीतिभाव करनेवारा वज्रपरिणामी सो पण्डित मानार्थी है। सो हे भाई! संसार में दोय जाति के पण्डित हैं। सो जै धमार्थो परिडत हैं सो तो महासज्जन हैं सरलस्वभावी हैं सो तो इस ग्रन्थ को चक देखि रोसा विचारंगे जो चक भई तो कहा भया। जो बड़े-बड़े परिडत होय हैं ते मी चूक जोय हैं। जैसे महापटबी विर्षे बड़े-बड़े चलया. सदैव के आवने-जावने हारे भी दीर्घ उद्यान मार्ग विर्षे चुके हैं । तो । ऐसे मार्ग विष कबहूं-कबहू का भावने जानेहारा अन्धासमान पुरुष, अल्प भासने तें भूलै तो आश्चर्य क्या