Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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SENA
काव्यांजली
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SAMASTER दूर मत जाओ, पदो, इतिहास शेखरचन्द्र का। ये कहाँ पर, हैं कहाँ अब, सुफल निज पुरुषार्थ का ॥५॥ हर मनुज करता स्व-शक्त्या, सरस्वती आराधना। पर कौन कितना कर सका, पढ़के उसे अपना बना॥ कौन उसको ग्रहण करके, कर सके प्रवचन भला। विद्वान् शेखरचन्द्र को, आती है यह उत्तम कला॥६॥ कश्मीर तो है दूर, पर केशर सुरभि हदि वास है। अरि-मित्र को दिल से पिलाते, लक्ष्य हित ही खास है। स्वातन्त्र्य पूर्ण विचार बाले, आप हैं निर्भीक नर। सम्प्रदायों से परे, तुम हो अनन्वय भक्त-वर ॥७॥ समाजसेवा में प्रमुख हैं बहुमुखी प्रतिभा धनी। ज्ञानवारिधि, वाणिभूषण, धर्म में प्रवचनमणि॥ दीन-दुखियों के लिये, तुमरे उठी मनपीर है। 'आशापुरा माँ' पीड़ितों की, बनगयी तकदीर है॥८॥ चालीस वर्षों तक जलाये, ज्ञान-दीप स्नेहभर। सिर झुका स्वीकारते, कृतज्ञता सुप्रदीप बर॥ कहाँ तक गिनायें आपके गुण, आप गुण की बान हैं। वित हैं, बहुज है, विख्यात हैं, विद्वान् हैं॥९॥ जो अंधेरे से घिरे हों, उन्हें आप मशाल हैं। उत्कर्ष देना साथियों को, उसकी आप मिशाल हैं॥ अतिथि के आतिथ्य में, ये अग्रणी हैं मित्रवर। साहित्य रचना क्षेत्र में, उत्कृष्ट हैं विवप्रवर ॥१०॥ जो पंक्ति में पीछे खड़ा है, चाहता उत्कर्ष है। श्री जैन शेखरचन्द्र का, आमन्त्रण उसे सहर्ष है। देंगे सहारा हाथ का, ले जायेंगे मंजिल, तलक। जान-विया के चषक, वह पी सकेगा बेझिझक ॥११॥ यह नहीं है कल्पना, अनुभूति सिद्ध प्रयोग है। 'सदलगा के संत' से कवि का हुआ संयोग है। पुरस्कृत करना, कराना, यह भी उत्तम काम है। सुबन्धु शेखरचन्द्र को, मेरा विनम्र प्रणाम है॥१२॥