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अशा सवर्ष एवं सफलता की कामना
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प्रति प्रोत्साहित किया। उनकी रूचि बढ़ने से पाठशाला भी नियमित चलने लगी। विद्यार्थी रात्रि में पढ़ने के । प्रति भी लगाव से पढ़ने लगे।
विद्यालय में जैन धर्म के नियमों का पालन आवश्यक था। कोई कंदमूल, अभक्ष्य न तो रसोईघर में खा सकता था और न अपने कमरे में। रात्रि भोजन का सर्वथा निषेध था। और रात्रि के दस बजे से पूर्व विद्यालय में उपस्थिति अनिवार्य थी। पहले यह नियम सिर्फ कागज पर थे। पर अब उनका पालन करना अनिवार्य हो गया। यद्यपि लड़कों को अच्छा नहीं लगा। पर नियम तो नियम। अनेक विद्यार्थियों को शाम देर से आने पर भूखा भी रहना पड़ता। रात्रि में देर से आने पर दंड भी भरना पड़ता और धार्मिक परीक्षा में फैल होने पर अगले वर्ष का प्रवेश भी रुक जाता। ____ मैं विद्यार्थियों के साथ पितवत व्यवहार करता। उनकी सविधाओं का ध्यान रखता। उनकी समस्यायें हल करना। उन्हें खेल-कूद, कॉलेज की विविध स्पर्धाओ में तैयार करने के लिए विद्यालय में स्पर्धाओं का आयोजन करता। इससे उनकी प्रतिभाओं का परिचय भी मिलता। हमारा यह विद्यालय भावनगर के ४०-५० ऐसे ही निवासी विद्यालयों में श्रेष्ट स्थान प्राप्त कर सका।
पढ़ने का प्रयोग ___ मैं चाहता था कि विद्यार्थी खूब पढ़ें। वर्तमान युग में नई हवा लगने से उनकी रूचि पढ़ने में कम और बाह्य
मौज-शौक में अधिक बढ़ने लगी। जब मैं उनसे पूछता कि इतने कम अंक क्यों आते हैं? तब वे कहते ‘सर कुछ याद नहीं रहता' मुझे बड़ा आश्चर्य रहता कि इस ऊगती युवावस्था में याद नहीं रहता!
सन् १९७७ में मैंने एक प्रयोग किया। यद्यपि में १९६९ में पी-एच.डी. कर चुका था। कॉलेज में विभागाध्यक्ष था पर विद्यार्थियों के लिए मैंने चेलेन्ज के रूप में विद्यार्थियों से कहा 'ठीक है-तुम्हें १८-२० वर्ष की उम्र में याद नहीं रहता और मैं ४२ वर्ष की उम्र में याद कर सकता हूँ। इसी हेतु मैंने एल-एल.बी. का रेग्युलर कोर्स करने की ठानी और कॉलेज में दाखिला ले लिया।' मैं विद्यार्थियों के साथ ही उनके कमरों में जाकर पढ़ता और तीन वर्ष में पूरा एल-एल.बी. का कोर्स पूर्ण किया और अच्छे अंकों से डिग्री प्राप्त की। होस्टेल के विद्यार्थी चकित भी हुए और उन्हें पढ़ने की प्रेरणा भी मिली।
विद्यालय परिसर में मंदिर निर्माण
ऐसा ही एक प्रसंग होस्टेल के प्रांगण में नवनिर्मित मंदिर के संबंध में भी है। यद्यपि होस्टेल श्वेताम्बर । विद्यार्थियों के लिये था। स्थानिक व मुंबई का मैनेजेन्ट श्वेताम्बर लोगों के हाथ में था मैं एकमात्र दिगम्बर जैन उनके पूरे परिवार में गृहपति था। परंतु मेरी सहिष्णुता, आम्नायों के प्रति समन्वयभावना व तटस्थता से वे सभी अत्यंत प्रभावित थे। मुझ पर पूर्ण विश्वास करते थे अतः मंदिर की नींव से लेकर पूरा निर्माण व प्रतिष्ठा का कार्य मेरे ही तत्त्वावधान में संपन्न हुआ। इसे मैं जैनधर्म की एकता के लिए उदाहरण स्वरूप मानता हूँ।
सन् १९८१ में स्थानिक मैनेजमेन्ट से शिस्त के संदर्भ में कुछ खटाश आने लगी। कारण कि वे चाहते थे कि शिस्त के नियमों को कुछ ढीला किया जाय। पर मैं ऐसा करने में असमर्थ था। अतः मैंने १९८२ में विद्यालय के गृहपति पद से त्यागपत्र दे दिया और विद्यालय के सामने ही रूपाली सोसायटी में अपना मकान बना लिया। विद्यालय छोड़ने पर भी मेरा मन विद्यालय की प्रगति में ही लगा रहता था।