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पसरलता का पेशानिक प्रतिपादन
347 { काय से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच निमित्तों से तथा प्रत्येक कर्म के विशिष्ट कारणों । से होने वाली परिस्पन्दन रूप क्रिया से आत्मा के प्रति आकृष्ट होकर कार्मण वर्गणा के पुद्गल आते हैं। राग
द्वेष का निमित्त पाकर ये पुद्गल आत्म प्रदेशों से श्लिष्ट (बद्ध) हो जाते हैं और कर्म का निर्माण करते हैं। मन
वचन-काय की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म का संबंध हो। जीव के साथ कर्म तभी सम्बद्ध होता । है जब मन-वचन-काय की प्रवृत्ति हो। इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की परंपरा अनादि काल से । चली आ रही है।
जैन दर्शन में कर्म परंपरा कर्म विशेष की अपेक्षा से आदि और सांत है और प्रवाह की दृष्टि से अनादि अनंत है। कर्म प्रवाह भी व्यक्ति विशेष की दृष्टि से अनादि तो है परन्तु अनंत नहीं है क्योंकि व्यक्ति नवीन कर्मों का
बंध रोक सकता है। जब व्यक्ति में राग-द्वेष रूपी कषाय का अभाव हो जाता है तो नये कर्मो का बंध नहीं होता । और कर्म प्रवाह की परंपरा समाप्त हो जाती है। साधना के द्वारा संचित कर्मों का क्षय करने पर आत्मा कर्म युक्त हो जाती है, मूर्त से अमूर्त हो जाती है।
पुद्गल कर्म कार्मण शरीर में स्थित होते हैं। सामान्यतया एक समय में मनुष्य के तीन शरीर होते हैंऔदारिक, तैजस और कार्मण। प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला स्थूल शरीर औदारिक शरीर है। तैजस शरीर विद्युत शरीर है। मृत्यु होने पर स्थूल शरीर छूट जाता है और तैजस तथा कार्मण शरीर आत्मा के साथ संलग्न रहते हैं तथा नई पर्याय में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार तैजस और कार्मण शरीर अनादि काल से आत्मा के साथ हैं और जब तक सभी कर्मों का क्षय नहीं हो जाता वे जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ बने रहेंगे।
2. कर्मबंध के भेद योग और कषाय के अनुसार कर्मबंध होता है। कर्मबंध के चार अंगभूत भेद हैं। (क) प्रदेशबंध :- जैन दर्शन आत्मा के असंख्यात प्रदेश मानता है। एक आत्म प्रदेश पर संख्यात, असंख्यात । और अनंत कर्म परमाणुओं का बंध हो सकता है। योगों की चंचलता के अनुसार न्यूनाधिक रूप में जीव कर्म पुद्गलों को ग्रहण करेगा। योगों की प्रवृत्ति अन्य होगी तो कर्म परमाणुओं की संख्या भी कम होगी। आगमिक भाषा में एक आत्म प्रदेश पर बंधने वाले कर्म परमाणुओं की संख्या को प्रदेश बंध कहते हैं। दूसरे वाक्यों में कहा जाय तो आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं, उन असंख्यात प्रदेशों में एक-एक प्रदेश पर अनंतानंत कर्म परमाणुओं का बंध होना प्रदेश बंध है। सभी आत्म प्रदेशों में प्रदेश बंध एक समान और एक साथ होता है। बंध अवस्था में जीव और कर्म दोनों का विजातीय रूप रहता है। किन्तु दोनों के पृथक-पृथक हो जाने पर दोनों पुनः अपनेअपने स्वभाव में आ जाते हैं. कर्म बंध के प्रभाव से आत्मा अपने निजी अष्टगुणों के प्रकटीकरण से वंचित रहता है। वे आवृत्त और कुण्ठित हो जाते हैं।
(ख) प्रकृति बंध:- योगों की प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण किए गये कर्म परमाणु ज्ञान को आवृत्त करना, दर्शन को आच्छन्न करना, सुख-दुःख का अनुभव कराना आदि विभिन्न प्रकृतियों के रूप में परिणत होते हैं। आत्मा के साथ बद्ध होने से पूर्व कार्मण वर्गणा के जो पुद्गल एक रूप थे, बद्ध होने के साथ ही उनमें नाना प्रकार के स्वभाव
और शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसे आगम की भाषा में प्रकृति बंध कहते हैं। प्रकृति बंध के दो प्रकार हैं- मूल प्रकृति बंध और उत्तर प्रकृति बंध। मूल प्रकृति बंध आठ प्रकार के हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय, आयु नाम गोत्र और अन्तराय। इन आठ मूल प्रकृतियों की विभाजित कर १४८ प्रकार की उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं। यह भेद माध्यमिक विवक्षा से है, वस्तुतः कर्म के असंख्यात प्रकार हैं और तदनुसार कर्म शक्तियाँ भी असंख्यात प्रकार की होती है।