Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti

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Page 431
________________ 1386 म तियों का वातायनल | तो कहीं विद्वानों की कमी, शोधकर्ताओं की कमी। 21वीं सदी में प्राकृत-अध्ययन का कार्य इन संस्थाओं में ताल-मेल हुए बिना नहीं चलेगा। प्राकृत-अपभ्रंश के विभिन्न कार्यों का विभाजन कर प्रत्येक संस्था अपना दायित्व स्वीकार करे तो प्राकृत-अध्ययन की प्रगति हो सकेगी। इसके लिए प्राकृत के विद्वानों की एक अखिल भारतीय परिषद भी गठित हुई थी, किन्तु एक बैठक के बाद अब उसमें कोई हलचल नहीं है। ___प्राकृत अध्ययन की गति-प्रगति को एक सूत्र में बाँधने के लिए एवं प्राकृत-अपभ्रंश के साहित्य से जनसामान्य को परिचित कराने के लिए प्राकृत की पत्रिका की महती भूमिका है। प्राकृत विद्या नामक त्रैमासिक पत्रिका उदयपुर से इसी उद्देश्य से प्रकाशित की गयी थी यह अब दिल्ली से प्रकाशित हो रही है। __ 21वीं सदी में प्राकृत के अध्ययन की क्या दिशाएं हों एवं उनके प्रति समाज का व विद्वानों का कितना और कैसा रुझान होगा यह कह पाना कठिन है। केवल आशावादी एवं आदर्शवादी बनने से प्राकृत अध्ययन विकसित नहीं हो जायेगा। इसके लिए प्राकृत भाषा के शिक्षण के प्रति जनमानस में रूचि जागृत करना आवश्यक है। विश्वविद्यालयों में जो प्राकृत का शिक्षण हो रहा है। उसमें समाज के घटकों की भागीदारी न के बराबर है। साधुसन्त, ,स्वाध्यायी बन्धु एवं समाज का युवावर्ग प्राकृत-शिक्षण से दूर है। विगत वर्षों में प्राकृत-शिक्षण के कुछ वर्कशोप सरकारी स्तर पर सम्पन्न हुए हैं। उनमें विद्यार्थी तो दूर-प्राकृत के विद्वान भी अपना पूरा समय नहीं दे पाये। जैसे चौबीस तीर्थंकरों के इर्दगिर्द जैनविद्या की परम्परा घूमती है, वैसे ही समाज में कुछ सुनिश्चित विद्वान हैं, वे हर समारोह, संगोष्ठी, व्याख्यान, सम्मेलन में आते-जाते रहते हैं। वे हर विषय के विशेषज्ञ माने जाते हैं, । अतः उनकी किसी एक विषय के लिए प्रतिबद्धता नहीं है। कोई गहन स्थायी महत्व का कार्य उनके द्वारा सम्पन्न नहीं हो पाता। वे विद्वान समाज में मात्र सजावट व प्रदर्शन के लिए काम आ रहे हैं। यह प्रवत्ति जब रुकेगी. तभी प्राकृत-अध्ययन के लिए कुछ ठोस हो सकेगा। उनके द्वारा पहला कार्य यह होना चाहिए कि वे प्राकृत शिक्षणशिविर के अधिष्ठाता बनें। 10-15 दिनों के 4-6 शिविर भी प्राकृत-शिक्षण के यदि आयोजित हुए तो प्रतिवर्ष लगभग सौ जिज्ञासु- प्राकृत के तैयार हो सकते हैं। इन्हीं में से फिर प्राकृत की प्रतिभाएं खोजकर उन्हें 21वीं सदी के लिए प्राकृत का विद्वान बनाया जा सकता है। प्राकृत-अध्ययन के विकास के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। श्रमणविद्या संकाय की श्रमणविद्या पत्रिका (1983) में प्राकृत के मनीषी डॉ. गोकुलचन्द जैन ने अंग्रेजी में प्राकृत एवं जैनविद्या के उच्चस्तरीय अध्ययन का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। प्राकृत की संगोष्ठियों की संस्तुतियां भी प्रकाश में आयी हैं। प्राकृत विभागों के व्यावहारिक अनुभवों ने भी प्राकृत-शिक्षण की कुछ दिशाएं तय की हैं। इन सबके मन्थन से यदि कुछ निष्कर्ष निकाले जाय तो 21वीं सदी में प्राकृत अध्ययन के लिए निम्न प्रमुख कार्यों की प्राथमिकताएं तय की जा सकती हैं। इनमें से जिस संस्था, व्यक्ति, विद्वान्, सरकारी प्रतिष्ठान व विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को जो अनुकूल लगे उस पर अपना योगदान कर सकता है:1. प्राकृत-अपभ्रंश पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण एवं सूची-निर्माण। 2. प्राकृत अपभ्रंश की अप्रकाशित पाण्डुलिपियों का सम्पादन- अनुवाद। 3. सम्पादित प्रमुख मूल प्राकृत-अपभ्रंश ग्रन्थों का अनुवाद एवं समालोचनात्मक अध्ययन। 4. प्रकाशित प्राकृत-अपभ्रंश ग्रन्थों का समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन। 5. प्राकृत-अपभ्रंश के ग्रन्थों में प्राप्त भारतीय इतिहास एवं समाज विषयक सामग्री का संकलन एवं अनुवाद।

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