Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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मागम माहित्य में आयुर्वेद (चिकित्सा विज्ञाना N EWB425) | आचरण, मिथ्या आहार-विहार या अशुभ कर्म के उदय से मनुष्य के शरीर में जो विभिन्न प्रकार के रोग या
विकार उत्पन्न हो जाते हैं उनके उपशमन या निवृत्ति के लिए चिकित्सा का आश्रय लेना पड़ता है। चिकित्सा भी एकांगी नहीं हो कर अनेकांगी होती है। प्राचीन काल में विभिन्न प्रकार के रोगों की उत्पत्ति के अन्तः और बाह्य जो कारण होते थे उनके अनुसार ही चिकित्सा का निर्धारण किया जाता था। जैनधर्म के आगम ग्रन्थों तथा अन्य ग्रंथों में प्राणावाय के आठ अंगों की चर्चा की गई है। कसाय पाहुड की जयधवला टीका में प्राणावाय के निम्न आठ अंगों का उल्लेख मिलता है- शालाक्य, कायचिकित्सा, भूततंत्र, शल्य तंत्र, अगदतंत्र रसायनतंत्र, बालरक्षा और बीजवर्धन 24
स्थानांग में भी किंचित नाम परिवर्तन के साथ इन्हीं आठ अंगों का प्रतिपादन किया गया है। यथा-कौमार मृत्य, काय चिकित्सा, शालाक्य, शल्यहर्ता (शल्यतंत्र) जंगोली (अगद तंत्र), भूत विद्या, क्षारतंत्र (वाजीकरण) और रसायन। (25 तत्वार्थ राजवर्तिक 11/120) तथा गोम्मटसार (जीवकाण्ड, गाथा 366) में अष्टांग आयुर्वेद के उल्लेख पूर्वक प्राणावाय का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। ___वर्तमान में जिस आयुर्वेद का प्रचलन है उसके सर्वांग पूर्ण ग्रंथ सुश्रुत संहिता (सूत्र स्थान 1/71) में उपर्युक्तानुसार ही आयुर्वेद के आठ अंग बतलाए हैं जो निम्नानुसार हैं- शल्य तंत्र, शालाक्य तंत्र, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमार भृत्य, अगदतंत्र, रसायन और वाजीकरण। ___ डॉ. नन्दलाल जैन के अनुसार प्राचीन काल में चिकित्सकों को उनके प्रशिक्षण के दौरान पढ़ाए जाने हेतु अनेक आगमिक एवं अन्य ग्रंथों में प्राणावाय (जैनायुर्वेद चिकित्सा विज्ञान) के निम्न आठ विषयों का संकेत उनके संस्कृत नामों एवं क्रम में कुछ भिन्नता के साथ प्राप्त होता है-26
1. कौमार भृत्य- बाल रक्षा 2. शल्यतंत्र एवं प्रसूति तंत्र 3. शालाक्य तंत्र (आंख, नाक, कान और गले की चिकित्सा) 4. अन्तः और बाह्य चिकित्सा 5. विष विज्ञान (अगद तंत्र) 6. भूत विद्या और भूति कर्म 7. दीर्घायु (रसायन) 8. कामोद्दीपक (वाजीकरण-क्षारतंत्र)
श्री जैन के अनुसार ये विषय शरीर में अन्तः और बाह्य संस्थानों तथा उनकी क्रिया विधि के अधिक यथार्थ ज्ञान के अतिरिक्त यांत्रिक, वैद्युत, विद्युदगवीय (इलैक्ट्रीक तथा वैधी क्रिण उपकरण के संदर्भ में बहुत कम हैं तथा उनका विस्तार क्षेत्र अपूर्ण प्रतीत होता है। फिर भी सामान्य भारतीय ग्रामीण जैन अधिक संख्या में अभी भी इसी पद्धति (आयुर्वेद) से उपचरित-अच्छे हो रहे हैं। यद्यपि यहां शरीर रचना और शरीर क्रिया या वर्णन नहीं मिलता है, तथापि उनका समावेश शल्यतंत्र और सम्बन्धित शाखाओं में होना प्रतीत होता है।
चिकित्सीय शिक्षा अथवा स्वास्थ्य शिक्षा
चिकित्सा विज्ञान के अनुसार शरीर की दो अवस्थाएं होती हैं__ 1. स्वस्थावस्था और 2. विकारवस्था अथवा आतुरावस्था। सामान्यतः मनुष्य की स्वस्थावस्था को प्राकृत माना गया है और विकारवस्था को अप्राकृत। स्वस्थावस्था भी दो प्रकार की होती है- शारीरिक स्वस्थता और ।