________________
435
जीव के असाधारण भाव: एक विश्लेषण
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन भाव शब्द बहु प्रचलित है इसका प्रयोग प्रत्येक क्षेत्र में अलग अलग अर्थ में हुआ है और वहीं विशिष्टता को दर्शाता है। कोशकार स्वभाव, दशा, घटना, ढंग, पद, क्रिया, लीला, वास्तविकता, संकल्प, मन, आत्मा, जीवधारी, हावभाव, उत्पत्ति (जन्म) संसार प्रतिष्ठा आदि अनेक अर्थ भाव शब्द के बतलाते हैं। यह शब्द भू धातु से घञ् प्रत्यय पूर्वक अथवा भू धातु से णिच् + अच् प्रत्यय से निष्पन्न हुआ है। भाव शब्द द्रव्य, परिणाम (पर्याय) आत्मरुचि अर्थ में भी प्रयुक्त है। कहीं द्रव्य, गुण, पर्याय इन तीनों का ग्रहण होता है जैसे कहा गया है- 'एते सर्वेऽपि भावाऽज्ञानिनोऽज्ञानमया वर्तन्ते' द्रव्य गुण और पर्याय अज्ञानी के अज्ञानमय अर्थात् विकारी ही होते हैं। इन सभी अर्थों से भिन्न जीव के स्वतत्त्व औपशमिकादि भावों को भाव शब्द से ग्रहण किया गया है। ।
औपशमिक आदि जीव के असाधारण भाव हैं। विशिष्ट गुण हैं। इनका सर्वातिशायी । माहात्म्य है। आचार्य अमृतचन्द्र ने तो इन भावपञ्चक का आश्रय लेकर जीव की परिभाषा की है - अन्यासाधारणाः भावाः पञ्चौपशमिकादयः।
स्वं तत्त्वं यस्य तत्त्वस्य जीवः स व्यपरिदिश्यते। तत्त्वार्थसार अर्थात् जीव को छोड़कर अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाने वाले औपशमिक आदि पांच । भाव जिस तत्त्व के स्वत्त्व हैं, वह जीव कहलाता है, यहाँ जीव शब्द का कथन आयु कर्म की अपेक्षा से जीवन पर्याय के धारण करनेवाला नहीं है क्योंकि ऐसा होने से सिद्धों में जो क्षायिक तथा परिणामिक भाव रहा करते हैं सो नहीं बन सकेंगे यहाँ जीवत्व गुण के धारण । करनेवाले की अपेक्षा जीव का कथन है। अर्थात जीव शब्द का अभिप्राय सामान्य जीवद्रव्य से है।
आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय के प्रथम सूत्र में इनका संग्रह कर इन्हें जीव के स्वतत्त्व कहा है- 'औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक पारिणमिकौ च' अर्थात् औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक । और पारिणामिक में पांच भाव जीव के स्वतत्त्व है। अस्तित्व, वस्तुतत्व, प्रमेयत्व द्रव्यत्व आदि और भी अनेक स्वभाव हैं। जो जीव के स्वतन्त्र कहे जा सकते हैं किन्तु आचार्य उमास्वामी ने इस सूत्र में इनका उल्लेख इसलिए नहीं किया क्योंकि वे जीव के असाधारण ।
WHAmawwaonue
weone