________________
4391 नहीं है। सभी जीवों में से कम से कम दो भाव और अधिक से अधिक पांच भाव एक जीव में हो सकते हैं। मुक्त ! जीवों में क्षायिक और पारिणामिक ये दो ही भाव होते हैं। संसारी जीवों के विविध विकल्प हैं अर्थात् किसी में तीन
किसी में चार और किसी में पांचों भावों की सत्ता होती है। तीसरे गुणस्थान तक के सब जीवों के क्षायोपशमिक, | औदयिक और पारिणामिक ये तीन ही भाव होते हैं। क्षायिक-सम्यक्त्व/चारित्र को प्राप्त करने वाले के लिए
क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये चारभाव होते हैं और औपशमिक सम्यक्त्व धारण करने
वाले के लिए औपशमिक, क्षायोपशमिक औदयिक और पारिणामिकभाव पाये जाते हैं किन्तु क्षायिक-सम्यग्दृष्टि । उपशम श्रेणी का आरोहण करने वाला होता है, उसके औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, और
पारिणामिक पांच भाव होते हैं। ___ ये पांचों भाव व्यापक नहीं है अतः ये जीव का लक्षण नहीं बन सकते हैं। लक्षण वह बनता है जो जीवमात्र में
जो त्रिकाल विषयक सर्वथा अव्यभिचारी होता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने जो इन भावों के आश्रय से जीव का लक्षण किया है, वह जीवराशि की अपेक्षा से है न कि जीवत्व की दृष्टि से है किसी एक जीव में अमृतचन्द्राचार्य का लक्षण घटित नहीं हो सकता है। 7 ___ उपयोग लक्षण वाले जीव के इन पंचभावों का व्याख्यान द्विसंयोगी अंग, त्रिसंयोगी अंग, चतुःसंयोगी अंग की I विवक्षा से भी शास्त्रों में पाया जाता है किन्तु विस्तार भय से उसे यहाँ नहीं दिया जा रहा है।
यहाँ यह विचार भी करना आवश्यक है कि जब जीव अमूर्त है। अमूर्त का मूर्त कर्म के साथ बन्ध संभव नहीं है और कर्म बन्ध के अभाव में औपशमिक आदि भावों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि पारिणामिक भावों के अलावा शेष चार भाव कर्म निमित्तक हैं। आचार्य इस विषय से समाधान देते हैं कि कर्म का आत्मा से अनादि सम्बन्ध है अतः कोई दोष नहीं है। तात्पर्य यह है कि संसार में जीव का कर्म के साथ अनादिकालीन सम्बन्ध है । अतः कोई दोष नहीं है। तात्पर्य यह है कि संसार में जीव का कर्म के साथ अनादिकालीन सम्बन्ध होने के कारण । वह व्यवहार से मूर्त हो रहा है। यह बात ठीक भी है क्योंकि एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य पर प्रभाव पड़ता है। जैसे मदिरा ! आदि का सेवन करने पर ज्ञान में मूर्छा देखी जाती है। पुद्गल ज्ञानावरणकर्म की शक्ति से जीव की स्वाभाविक ज्ञान गुण की पर्याय केवलज्ञान की प्रकटता नहीं हो पाती है। इस विवक्षा से तो कर्म निमित्त से उत्पन्न होने वाले भाव जीव के असाधारण हैं लेकिन वस्तुतः आत्मा मूर्तरूप नहीं। रूप रस गन्ध, स्पर्श, गुण वाला मूर्त होता है और वह केवल पुद्गल द्रव्य है। आत्मा तो उपयोग लक्षण वाला है। उसके असाधारण भावों का उक्त दिग्दर्शन विशेष अध्ययन के लिए प्रेरणास्पद होगा।
सन्दर्भ 1. भावः सत्ता स्वभावाभिप्रायचेष्टात्मजन्मसु। ___क्रियालीलापदार्थेषु विभूतिबुधजन्तुषु 'रत्यादौ च' ॥ मेदिनी 2. 'यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः' भावशब्द का प्रयोग द्रव्य अर्थ में है, द्रव्य के भी भाव व्यपदेश । भवनं भावः अथवा भूति अर्वा इस प्रकार की व्युत्पत्ति के अवलम्बन से बन जाता है। 3. भावो खलु परिणामो। 4. भावः आत्मरुचिः। भावपाहुड़ 66 की टीका 5. समयसार आत्मख्याति टीका एवं पञ्चाध्ययी पृ. 279 6. त एते (पञ्च्य भावा) पञ्च । पञ्चास्तिकायसंग्रह गा. 53.56 एवं गो.क. 812
-
-
-
-