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। कार्यसिद्धि में समर्थ नहीं होती। 32 प्रत्येक क्रिया का समर्थ, मुहूर्त शुद्धि का विशेष ध्यान होना सर्वोपरि है समय
पूर्व और समय के बाद की गई क्रियायें समुचित फल प्रदान नहीं करतीं। जिन क्रियाओं से सम्यक्त्व की हानि एवं व्रतों में दूषण नहीं लगता वह क्रिया करनी चाहिए। पूजा / विधान / अनुष्ठान के लिए मंदिर मूर्ति आदि | बनवाने 33 का आचार्यों ने निर्देश किया है। क्योंकि पंचमकाल में प्रतिमा / मंदिर के आधार बिना आत्मशुद्धि नहीं हो सकती । 34 श्रावकाचार में श्रावकों को मंदिर / प्रतिमा बनवाने प्रतिष्ठा करवाने का अचिंत्य फल कहा है। 35 श्रावक को अपने आवश्यकों का पालन करते हुए प्रतिमा / मंदिर बनवाते रहना चाहिए। यह मंदिर और प्रतिमा वास्तुशास्त्रानुसार ही हों तभी कल्याणकारी होती है। श्रावक संसार में धर्म कार्य पूजा / विधान / प्रतिष्ठा के अनुष्ठान कर सुखी जीवन व्यतीत करता है और इनके प्रभाव से अनंत सुख प्राप्त करने की भावना करता है। इस उद्देश्य से आचार्यों ने जैन आगम साहित्य ग्रन्थों में पूजन / अनुष्ठान एवं मंदिर / प्रतिमा और ग्रह वास्तु का सांगोपांग वर्णन किया है।
1. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक 119
3. धर्म संग्रह श्रावकाचार - 85
5. सागार धर्मामृत 29
7. वसुनंदी श्रावकाचार
9. उमास्वामी श्रावकाचार - 138-39 11. उमास्वामी श्रावकाचार 120-122 13. भव्यमार्गोपदेशक उपासकाध्ययन 348
15. महापुराण - 42
17. यशस्तिलक चम्पू 880
19. भावसंग्रह (संस्कृत) 35-38 21. व्रतोद्योतन श्रावकाचार 462-463
23. अमितगति श्रावकाचार 39
25. महापुराण 71
27. महापुराण 315
29. महापुराण 73
31. सागार धर्मामृत 33 33. यशस्तिलक चम्पू 446
35. रत्नमाला 26
संदर्भ ग्रन्थ सूची
2. अमितगति श्रावकाचार - 12
4. महापुराण - 26.27
6. महापुराण - 34
8. भव्यमार्गोपदेशक उपासकाध्ययन 346-47 10. भावसंग्रह (संस्कृत) 29-30
12. भावसंग्रह (संस्कृत) 34
14. महापुराण - 84
16. वसुनंदी श्रावकाचार 201-202 18. यशस्तिलक चम्पू 502
20. उमास्वामी श्रावकाचार 146-148
22. भावसंग्रह - 53.56
24. वसुनंदी श्रावकाचार 214
26. महापुराण - 83.84.88
28. महापुराण 218-219 30. उमास्वामी श्रावकाचार 161-107
32. महापुराण - 219-220
34 सागार धर्मामृत
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