Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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! मोक्ष की प्राप्ति के लिए अष्ट द्रव्य से पूजा करता हूँ। छत्र, चँवर आदि से की गई पूजा मंगल देती है । पुष्पांजलि प्रदान करने से चन्द्र सूर्य के समान दीप्ति प्राप्त होती है, तीन धाराओं के द्वारा की गई पूजा सर्व कर्मों की शांति करने वाली है।
( 3 ) स्तवन- पूजा के बाद जयमाला के रूप 1 संगीत आदि के द्वारा अर्चना करना चाहिए ।
भगवान के गुणों का स्तवन कर अत्यंत भक्ति पूर्वक नृत्य
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' (4) पंच नमस्कार मंत्र जाप - पूजन के पूर्व एवं अंत में पंच नमस्कार मंत्र की जाप करना चाहिए, जिससे भावों में स्थिरता रहती है।18 ध्यान- चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं ध्यान रूपी आनंदामृत का पान करते ! श्वास वायु को बहुत धीरे से अंदर ले जाना और बहुत धीरे से बाहर निकलना चाहिए तथा समस्त अंगों का
हलन चलन एकदम बंद होना चाहिए। पाँचों इंद्रियाँ बाह्य व्यापार को छोड़कर आत्मस्थ हो जाती हैं और चित्त अंदर आत्मा में लीन हो जाता है आत्मा और श्रुतज्ञान ध्येय हैं। ध्यान में इन्हीं का चिंतन किया जाता है यहाँ पिण्डस्थ ध्यान- अपने शरीर का ध्यान / पदस्थ ध्यान- पंचपरमेष्ठी एवं तीर्थंकरों के नाम / पदों का ध्यान । रूपस्थ ध्यान - अरहंत भगवान के स्वरूप का चिंतन और रूपातीत ध्यान- केवल ज्ञान, दर्शन स्वरूप सिद्ध परमात्मा का ध्यान करना चाहिए।
जिनवाणी स्तवन- अष्ट द्रव्यों से जिनवाणी / शास्त्र की पूजा करना, स्वाध्याय, पाठ, स्तुति एवं विनय आदि करना जिनवाणी स्तवन है।
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(5) जाप - अनुष्ठान की सानंता निर्विघ्न समाप्ति के लिए णमोकार मंत्र का या अनुष्ठानानुसार यथायोग्य मंत्र का जाप करना चाहिए। यथार्थ विधि से सिद्ध चक्र नामक मंत्र का उद्धार करके या पंच परमेष्ठी यंत्र (सिद्धयंत्र या विनायक यंत्र) का सम्यक प्रकार शास्त्रानुसार पूजनकर उन यंत्रों के मंत्रों का संकल्प पूर्वक जाप करें। जिस 1 यंत्र की पूजा 'करे उस यंत्र के गंध से मस्तक पर तिलक लगाकर सिद्ध शेषा (अशिका) लेकर मस्तक पर रखे पश्चात स्वस्थ चित्त होकर अन्तमुहूर्त काल तक अपने देह में स्थित चिदानंद लक्षण स्वरूप अपनी आत्मा का करें | 23 जाप से पाप नष्ट हो जाते हैं और कार्य सानंद सम्पन्न होता है अर्थात् आत्म कल्याण एवं अनुष्ठान की सफलता हेतु जाप करना चाहिए। 24 हवन - महापुराण में तीन अग्नियों को स्थापित कर आहूति करने का उल्लेख है किन्तु जाप मंत्र की दशांश आहूति करने का उल्लेख नहीं किया है दशांश आहूति का उल्लेख । अमितगति श्रावकाचार में किया गया है। हवन के लिए भगवान के सामने तीन प्रकार की पुण्याग्नियाँ स्थापित करना चाहिए" ये तीनों महा अग्नियाँ तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवलि के अंतिम निर्वाण महोत्सव में पूजा का अंग बनकर पवित्रता को प्राप्त हुई है | 26 गहपत्य अग्नि आह्नीय अग्नि और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध इन अग्नियों की चौकोर गोल और त्रिकोण कुण्डों में स्थापना करना चाहिए । अग्नियाँ स्वतः पवित्र नहीं है और न ही देवता ही है। किन्तु अरहंत देव की दिव्यमूर्ति की पूजा के संबंध से ये अग्नियाँ पवित्र मानी गई हैं। पीठिका मंत्र, जाति मंत्र, निस्तारक मंत्र, ऋषिमंत्र, सुरेंद्र मंत्र, परमराजादि मंत्र एवं परमेष्ठी मंत्र यह मंत्र सर्व क्रियाओं में प्रयोग किये जाने वाले सामान्य मंत्र हैं। इसका सभी विधानों / अनुष्ठानों में उपयोग किया जाता है। 27
तीर्थंकर, गणधर एवं सामान्य केवली के निर्वाण होने पर अंतिम संस्कार के समय जिन अग्नियों में पूजा के पश्चात बचे हुए द्रव्यांश से तथा पवित्र द्रव्यों के द्वारा उत्तम फल की प्राप्ति के लिए सप्त पीटिकादि मंत्र पूर्वक उक्त तीन अग्नियों में आहुति देना चाहिए। शांति कर्म आदि के अंत में जापमंत्र की दशांश आहुति कर हवन करते हुए समस्त विश्व के कल्याण, सुखी जीवन एवं शांति की मंगल कामना करना चाहिए। 29