Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti

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Page 489
________________ 444 माया | का होता है- (1) द्रव्यसूत्र- तीन लड़ी का यज्ञोपवीत द्रव्य सूत्र है (i) भावसूत्र- सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप भावात्मक तीन गुण वाला श्रावक धर्मरूप भावसूत्र होता है। अनुष्ठान की समस्त क्रियायें द्विजन्म ब्रह्मसूत्र 1 / जनेऊ / यज्ञोपवीत धारी को ही करना चाहिए। यह श्रावक का चिन्ह एवं रत्नत्रय का सूचक है। इससे ही । श्रावक की संज्ञा होती है। यज्ञोपवीत रत्नत्रय की रक्षा का संकल्प है। यह हमें सदाचरण की प्रेरणा करता है। व्रतों को धारण कर ही अनुष्ठान प्रारंभ करना चाहिए। ___ मांडना-मांडना प्रतीकात्मक होता है यह नक्शा है। इससे उन स्थानों/विषयों का ज्ञान होता है जिससे पूजक का मन स्थिर रहता है और अपार प्रभावना होती है। जम्बूद्वीप, समवशरण, नंदीश्वर एवं तीनों लोकों की रचना रुप मांडना जिन मंदिर में बनाने से दुःखों की हानि मनोवांछित लक्ष्मी की प्राप्ति एवं महापुण्य होता है।16 (3) पूजा विधि श्री समन्तभद्र स्वामी, श्री कार्तिकेय स्वामी, श्री जिनसेनाचार्य, आचार्य अमृतचंद्र आदि आचार्यों ने श्रावकाचार में पूजा का वर्णन तो किया है। किन्तु पूजा विधि का वर्णन नहीं किया इनके बाद सर्वप्रथम आचार्य सोमदेव ने 'यशस्तिलक चम्पू' में पूजा का सविधि वर्णन किया है आचार्य अमितगति, आचार्य वसुनंदी, आचार्य गुणभूषण, आचार्य जटासिंह नंदी, श्री देवसेन एवं पं. राजमल्ल आदि ने श्रावकाचार में पूजा के भेदों का वर्णन किया है। लाटी संहिता, उमास्वामी श्रावकाचार और धर्मसंग्रह श्रावकाचार में आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजन एवं विसर्जन रूप पंचोपचारी पूजा का वर्णन किया है। यशस्तिलक चम्पू में आचार्य सोमदेव ने पुष्पादिक में एवं जिनबिम्ब में जिनेन्द्र भगवान की स्थापना कर पूजा करने का उल्लेख किया है। जो पुष्पादिक में जिन भगवान की स्थापना कर पूजन की जाती है उसमें अरहंत और सिद्ध को मध्य में आचार्य को दक्षिण में उपाध्याय को पश्चिम में साधु का उत्तर में और पूर्व में सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र को क्रम से भोजपत्र, लकड़ी के पटिये, वस्त्र, शिलातल, रेत निर्मित, पृथ्वी आकाश और हृदय में स्थापित कर अष्टद्रव्य से देवशास्त्र गुरु एवं रत्नत्रय धर्म की पूजा कर दर्शन भक्ति, ज्ञानभक्ति, चारित्र भक्ति, पंच गुरुभक्ति, सिद्ध भक्ति, आचार्य भक्ति और शांति भक्ति करना चाहिए। इस प्रकार की पूजा को आचार्य वसुनंदी ने तदाकार और अतदाकार पूजा कहा है अतदाकार पूजा का (जिसमें अक्षत आदि में भगवान की स्थापना कर पूजा की जाती है) इस पंचम काल में निषेध किया है अतः तदाकार पूजा ही करना चाहिए (जिसमें जिनबिंब जिनेन्द्र भगवान की स्थापना की जाती है) जिनबिंब में जिनभगवान की स्थापना कर पूजन करने की छह प्रकार की विधि बतलाई हैं- पूजा विधि में ये छह क्रियायें मुख्य हैं। जिनके पूर्ण करने से पूजा पूर्ण होती है। (1) अभिषेक (2) पूजन (3) स्तवन (4) पंच नमस्कार मंत्र जाप (5) ध्यान एवं (6) जिनवाणी स्तवन7 इसी क्रम से पूजा करने का निर्देश दिया है। (1) अभिषेक- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पुरुषार्थसिद्धियुपाय, अमितगति श्रावकाचार लाटी संहिता, गुण भूषण श्रावकाचार, पूज्यपाद श्रावकाचार एवं रयणसार आदि श्रावकाचारों में अभिषेक का वर्णन नहीं किया है। महापुराण, चारित्रसार, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार आदि अनेक श्रावकाचारों में अभिषेक/स्तवन का वर्णन तो है किंतु पंचामृत अभिषेक का वर्णन नहीं किया गया है। यशस्तिलक चम्मू, वसुनंदी श्रावकाचार, सागगारधर्मामृत उमास्वामी श्रावकाचार एवं भावसंग्रह आदि श्रावकाचारों में पंचामृत अभिषेक का वर्णन है। इनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि सोमदेव आचार्य के यशस्तिलक चम्पू में वर्णित पंचामृत अभिषेक का ही उक्त सभी आचार्यों

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