Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
View full book text
________________
455 | स्थान में भेजकर उसकी पौद्गलिकता प्रयोग से सिद्ध कर दी है। यह शब्द पुद्गल के द्वारा ग्रहण किया जाता है, । पुद्गल से ही धारण किया जाता है, पुद्गलों से रुकता है, पुद्गलों को रोकता है, पुद्गल कान आदि के पर्दो को
फाड़ता है और पौद्गलिक वातावरण में अनुकम्पन पैदा करता है, अतः शब्द पौद्गलिक है। स्कन्धों के परस्पर संयोग, संघर्षण और विभाग से शब्द उत्पन्न होता है, जिह्वा और तालु आदि के संयोग से नानाप्रकार के भाषात्मक प्रायोगिक शब्द उत्पन्न होते हैं। इसके उत्पादक उपादान कारण और स्थूल निमित्त कारण दोनों ही पौद्गलिक हैं। इसप्रकार विज्ञान भी शब्द को आकाश का गुण नहीं मानता। अतःशब्द मूर्तिक और उत्पाय है।
शब्द को द्रव्य मानने के हेतुओं को स्पष्ट करते हुए आ. प्रभाचन्द्र का कथन है कि चूँकि तीव्र शब्द के श्रवण से कान के पर्दे का फटना देखा जाता है। इससे शब्द का एक स्पर्श गुण वाला द्रव्य होना सिद्ध होता है। विदारण का कारण अभिघात है और वह किसी स्पर्शवान् द्रव्य का ही हो सकता है। शब्द सहचरित वायु के अभिघात से वाधिर्य की उत्पत्ति उन्हें नहीं जंचती। इसी प्रकार शब्द में अल्पत्व, महत्व परिमाण भी देखने में आता है। यथा "अल्पोशब्दः" "महान् शब्दः" था "एकः शब्दः" "द्वौ शब्दौ" आदि प्रयोगों में शब्द में संख्या-गुण उपलब्ध होता है। __ प्रतिकूल दिशा से आने वाली वायु द्वारा शब्द का अभिघात देखने में आता है। इससे शब्द में वायु-संयोग गुण की उपलब्धि प्रमाणित होती है। अतः इन गुणों का आश्रय होने से शब्द द्रव्य रूप है। _ गुणाश्रय होने के अतिरिक्त क्रियाश्रय होने से भी शब्द द्रव्यात्मक है। वैशैषिक शब्द को गुण मानने के कारण उसमें क्रिया को स्वीकार नहीं करते। अतः दूरस्थ शब्द के ग्रहणार्थ उन्हें वीचि-तरंग न्याय से अथवा कदम्बमुकुल न्याय से शब्द के शब्दान्तर की उत्पत्ति माननी पड़ती है, परन्तु जैनों को शब्द को द्रव्य मानने के कारण उसमें क्रिया मानना सुतरां अभीष्ट है। इससे जैनों ने नैयायिकों के शब्दज शब्द के सिद्धान्त को अनावश्यक कहा है
जैनदर्शन में अन्य द्रव्यों के समान ही शब्द को भी सामान्य विशेषात्मक माना गया है। सभी शब्दों में अनुगत रहने वाला उसका रूप शब्दत्व सामान्यात्मक है। शंख शब्द, घंटा शब्द, पशु शब्द, नारी शब्द, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि उसके विशेषात्मक रूप हैं। शब्द की यह सामान्य विशेषात्मकता जैनदर्शन के अनुसार उसकी पौद्गलिकता का ही प्रमाण है।
शब्द केवल शक्ति नहीं है, किन्तु शक्तिमान पुद्गलद्रव्य स्कन्ध है, जो वायु द्वारा देशान्तर को जाता हुआ आसपास के वातावरण को झनकाता जाता है। यन्त्रों से इसकी गति बढ़ाई जा सकती है और उसकी सूक्ष्म लहर की सुदूर देश से पकड़ा जा सकता है। वक्ता के तालु आदि के संयोग से उत्पन्न हुआ एक शब्द मुख से बाहर निकलते ही चारों ओर के वातावरण को उसी शब्द रूप में कर देता है। वह स्वयंभी नियत दिशा में जाता है और जाते-जाते शब्द से शब्द, शब्द से शब्द उत्पन्न करता जाता है। शब्द के जाने का अर्थ पर्याय वाले स्कन्ध का जाना हैऔर शब्द की उत्पत्ति का भी अर्थ आसपास के स्कन्धों में शब्द-पर्याय का उत्पन्न होना है। तात्प है कि शब्द स्वयं द्रव्य की पर्याय है और इस पर्याय का आधार है पुद्गल स्कन्ध। पर्याय रूप शब्द केवल शक्ति नहीं है, क्योंकि शक्ति निराधार नहीं होती, उसका कोई न कोई आधार अवश्य होता है और इसका आधार हैपुद्गल द्रव्य।
इसके साथ ही साथ जैनदर्शन की यह भी मान्यता रही है कि सभी शब्द वास्तव में क्रियावाची ही हैं। । जातिवाचक अश्वादि शब्द भी क्रियावाचक है, क्योंकि आशु अर्थात् शीघ्र गमन करने वाला अश्व कहा जाता है। गुण वाचक शुक्ल, नील आदि शब्द भी क्रियावाचक हैं, क्योंकि शुचि अर्थात् पवित्र होना रूप क्रिया से तथा नील रंगने रूप क्रिया से नील कहा जाता है। देवदत्त आदि यदृच्छा शब्द भी क्रियावाची है, क्योंकि देव ही